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पैदा होता है। इसका जवाब जैन और जेनेतर दर्शनों के अधिकारियों की प्रकृति में है । जैन दर्शन मुख्यतया त्यागप्रधान होने से उसके अधिकारियों में मुमुक्षु ही मुख्य हैं, गृहस्थ नहीं। जब कि ब्राह्मण परम्परा चातुराश्रमिक होने से उसके अधिकारियों में गृहस्थों का, खासकर विद्वान् ब्राह्मण गृहस्थों का, वही दर्जा है जो त्यागियों का होता है। गार्हस्थ्य की प्रधानता होने के कारण ब्राह्मण विद्वानों ने व्यावहारिक जीवन में सत्य, अहिंसा श्रादि नियमों पर उतना भार नहीं दिया जितना कि जैन त्यागियों ने उन पर दिया । गार्हस्थ्य के साथ अर्थलाभ, जयतृष्णा आदि का, त्यागजीवन की अपेक्षा अधिक सम्बन्ध है। इन कारणों से ब्राह्मण परम्परा में मोक्ष का उद्देश होते हुए भी छल, जाति आदि के प्रयोग का समर्थन होना सहज था, जब कि जैन परम्परा के लिए वैसा करना सहज न था । क्या करना यह एक बार प्रकृति के अनुसार तय हो जाता है तब विद्वान् उसी कर्तव्य का सयुक्तिक समर्थन भी कर लेते हैं। कुशाग्रीयबुद्धि ब्राह्मण तार्किकों ने यही किया। उन्होंने कहा कि तत्त्वनिर्णय की रक्षा के वास्ते कभी-कभी छल, जाति आदि का प्रयोग भी उपकारक होने से उपादेय है, जैसा कि अङ्कररक्षा के वास्ते सकण्टक बाड़ का उपयोग । इस दृष्टि से उन्होंने छल, जाति आदि के प्रयोग की भी मोक्ष के साथ सङ्गति बतलाई। उन्होंने अपने समर्थन में एक बात स्पष्ट कह दी कि छल, जाति आदि का प्रयोग भी तत्त्वज्ञान की रक्षा के सिवाय लाभ, ख्याति प्रादि अन्य किसी भौतिक उद्देश से कर्तव्य नहीं है। इस तरह अवस्था विशेष में छल, जाति आदि के प्रयोग का समर्थन करके उसकी मोक्ष के साथ जो सङ्गति ब्राह्मण तार्किकों ने दिखाई वही बौद्ध तार्किकों ने अक्षरशः स्वीकार करके अपने पक्ष में भी लागू की। उपायहृदय के लेखक बौद्ध तार्किक ने-छल जाति आदि के प्रयोग की मोक्ष के साथ कैसी असङ्गति है-यह श्राशङ्का करके उसका समाधान अक्षपाद के ही शब्दों में किया है कि अाम्रफल की रक्षा श्रादि के वास्ते कएटकिल बाड़ की तरह सद्धर्म की रक्षा के लिए छलादि भी प्रयोगयोग्य हैं । वादसम्बन्धी पदार्थों के प्रथम चिन्तन, वर्गीकरण और सङ्कलन का श्रेय ब्राह्मण परम्परा को है या बौद्ध परम्परा को, इस प्रश्न का सुनिनिश्त जवाब
१ 'सत्वाध्यवसायसंरक्षणार्थ जल्पवितण्डे बीजप्ररोहसंरक्षणार्थ कण्टकशाखावरणवत् ।'-न्याय सू० ४.२.५० । 'यथाम्रफल परिपुष्टि कामेन तत्(फल)परिरक्षणार्थ बहिर्बहुतीदणकण्टक निकरविन्यासः क्रियते, वादारग्भोऽपि तथैवाधुना सद्धर्मरक्षणेछया न तु ख्यातिलाभाय ।'-उपायहृदय पृ० ४ ।
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