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________________ २१५ हो गया है । जैन तर्कग्रन्थों में मिथ्योत्तर, जाति और दूषणाभास श्रादि शब्द प्रयुक्त पाये जाते हैं। ३-उद्देश विभाग और लक्षण आदि द्वारा दोषों तथा दोषाभासों के निरूपण का प्रयोजन सभी परम्परात्रों में एक ही माना गया है और वह यह कि उनका यथार्थ ज्ञान किया जाए जिससे वादी स्वयं अपने स्थापनावाक्य में उन दोषों से बच जाय और प्रतिवादी के द्वारा उद्भावित दोषाभास का दोषाभासत्व दिखाकर अपने प्रयोग को निर्दोष साबित कर सके । इसी मुख्य प्रयोजन से प्रेरित होकर किसी ने अपने ग्रंथ में संक्षेप से तो किसी ने विस्तार से, किसी ने अमुक एक प्रकार के वर्गीकरण से तो किसी ने दूसरे प्रकार के वर्गीकरण से, उनका निरूपण किया है। ४-उक्त प्रयोजन के बारे में सब का ऐकमत्य होने पर भी एक विशिष्ट प्रयोजन के विषय में मतभेद अवश्य है जो खास ज्ञातव्य है। वह विशिष्ट प्रयोजन है-जाति, छल आदि रूप से असत्य उत्तर का भी प्रयोग करना । न्याय (न्यायसू० ४.२.५० ) हो या वैद्यक (चरक-विमानस्थान पृ० २६४) दोनों ब्राह्मण परम्पराएँ असत्य उत्तर के प्रयोग का भी समर्थन पहले से अभी तक करती आई हैं । बौद्ध परम्परा के भी प्राचीन उपायहृदय आदि कुछ ग्रन्थ जात्युत्तर के प्रयोग का समर्थन ब्राह्मण परम्परा के ग्रन्थों की तरह ही साफ-साफ करते हैं, जब कि उस परम्परा के पिछले ग्रन्थों में जात्युत्तरों का वर्णन होते हुए भी उनके प्रयोग का स्पष्ट व सबल निषेध है-वादन्याय पृ० ७० । जैन परम्परा के ग्रन्थों में तो प्रथम से ही लेकर मिथ्या उत्तरों के प्रयोग का सर्वथा निषेध किया गया है-तत्त्वार्थश्लो० पृ० २७३ । उनके प्रयोग का समर्थन कभी नहीं किया गया। छल-जाति युक्त कथा कर्तव्य है या नहीं इस प्रश्न पर जब जब जैन तार्किकों ने जैनेतर तार्किकों के साथ चर्चा की तब तब उन्होंने अपनी एक मात्र राय यही प्रकट की कि वैसी कथा कर्तव्य नहीं त्याज्य' है । ब्राह्मण बौद्ध और जैन सभी भारतीय दर्शनों का अन्तिम व मुख्य उद्देश मोक्ष बतलाया गया है और मोक्ष की सिद्धि असत्य या मिथ्याज्ञान से शक्य ही नहीं जो जात्युत्तरों में अवश्य गर्भित है। तब केवल जैनदर्शन के अनुसार ही क्यों, बल्कि ब्राह्मण और बौद्ध दर्शन के अनुसार भी जात्युत्तरों का प्रयोग असंगत है। ऐसा होते हुए भी ब्राह्मण और बौद्ध तार्किक उनके प्रयोग का समर्थन करते हैं और जैन तार्किक नहीं करते इस अन्तर का बीज क्या है, यह प्रश्न अवश्य १ देखो सिद्धसेनकृत वादद्वात्रिंशिका ; वादाष्टक ; न्यायवि० २. २१४ । .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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