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नहीं भी ये । श्रा० हेमचन्द्र ने धर्मकीर्ति की ही संशोधित दृष्टि का उपयोग करके पूर्ववर्ती दिङ्नाग, प्रशस्तपाद और धर्मकीर्ति तक के सामने कहा कि श्रप्रदर्शितान्वय या अप्रदर्शितव्यतिरेक दृष्टान्ताभास तभी कहा जा सकता है जब उसमें प्रमाण अर्थात् दृष्टान्त ही न रहे, वीप्सा आदि पदों का अप्रयोग इन दोषों का नियामक ही नहीं केवल दृष्टान्त का प्रदर्शन ही इन दोषों का नियामक है। पूर्ववर्ती सभी प्राचार्य इन दो दृष्टान्ताभासों के उदाहरणों में कम से कमअम्बरवत् घटवत्-जितना प्रयोग अनिवार्य रूप से मानते थे। श्रा० हेमचन्द्र के अनुमार ऐसे दृष्टान्तबोधक 'वत्' प्रत्ययान्त किसी शब्दप्रयोग की जरूरत ही नहीं-इसी अपने भाव को उन्होंने प्रमाणमीमांसा (२. १. २७) सूत्र की वृत्ति में निम्नलिखित शब्दों से स्पष्ट किया है-'एतौ च प्रमाणस्य अनुपदर्शनाद्भवतो न तु वीप्सासर्वावधारणपदानामप्रयोगात् , सत्स्वपि तेषु, असति प्रमाणे तयोरसिद्धेरिति । . ३-श्रा० हेमचन्द्र की तीसरी विशेषता अनेक दृष्टियों से बड़े मार्के की है । उस साम्प्रदायिकता के समय में जब कि धर्मकीर्ति ने वैदिक और जैन सम्प्रदाय पर प्रबल चोट की और जब कि अपने ही पूज्य वादी देवसूरि तक ने 'शाठ्य कुर्यात् शठं प्रति' इस नीति का प्राश्रय करके धर्मकीति का बदला चुकाया तब श्रा० हेमचन्द्र ने इस स्थल में बुद्धिपूर्वक उदारता दिखाकर साम्प्रदायिक भाव के विष को कम करने की चेष्टा की। जान पड़ता है अपने व्याकरण की तरह अपने प्रमाणग्रन्थ को भी सर्वपार्षद-सर्वसाधारण बनाने की प्रा. हेमचन्द्र की उदार इच्छा का ही यह परिणाम है । धर्मकीर्ति के द्वारा ऋषभ, वर्धमान आदि पर किये गए कटाक्ष और वादिदेव के द्वारा सुगत पर किये गए प्रतिकटाक्ष का तर्कशास्त्र में कितना अनौचित्य है, उससे कितना रुचिभङ्ग होता है, यह सब सोचकर आ० हेमचन्द्र ने ऐसे उदाहरण रचे जिनसे सबका मतलब सिद्ध हो पर किसी को श्राघात न हो ।
यहाँ एक बात और भी ध्यान देने योग्य है जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्व की है । धर्मकीर्ति ने अपने उदाहरणों में कपिल आदि में असर्वज्ञत्व और
तिरेको यथा श्रवीतरागो वक्तृत्वात्, वैधोदाहरणम् , यत्रावीतरागत्वं नास्ति न स वक्ता यथोपलखण्ड इति ।-ज्यायवि० ३. १२७, १३४ ।
१ 'सर्वपार्षदत्वाच शब्दानुशासनस्य सकलदर्शनसमूहात्मकस्याद्वादसमाश्रयणमतिरमणीयम् ।'-हैमश० १.१.२।
२प्र. मी० २. १. २५ । .
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