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________________ २११ भास के स्थान में क्यों पसन्द किया इसका युक्तिसिद्ध खुलासा भी कर देते हैं। दृष्टान्ताभास के निरूपण में श्रा० हेमचन्द्र की ध्यान देने योग्य महत्त्व की तीन विशेषताएँ हैं जो उनकी प्रतिभा की सूचक हैं-१-उन्होंने सूत्ररचना, उदाहरण आदि में यद्यपि धर्मकीर्ति को श्रादर्श रखा है तथापि वादिदेव की तरह पूरा अनुकरण न करके धर्मकीर्ति के निरूपण में थोड़ा सा बुद्धि सिद्ध संशोधन भी किया है। धर्मकीर्ति ने अनन्वय और अव्यतिरेक ऐसे जो दो भेद दिखाए हैं उनको प्रा० हेमचन्द्र अलग न मानकर कहते हैं कि बाकी के आठ-आठ भेद ही अनन्वय और अव्यतिरेक रूप होने से उन दोनों का पार्थक्य अनावश्यक है (प्र. मी २. १: २७)। श्रा० हेमचन्द्र की यह दृष्टि ठीक है। २-पा० हेमचन्द्र ने धर्मकीर्ति के ही शब्दों में अप्रदर्शितान्वय और अप्रदर्शितव्यतिरेक ऐसे दो भेद अपने सोलह भेदों दिखाए हैं ( २. १. २७), पर इन दो भेदों के उदाहरणों में धर्मकीर्ति की अपेक्षा विचारपूर्वक संशोधन किया है । धर्मकीर्ति ने पूर्ववर्ती अनन्वय और अव्यतिरेक दृष्टान्ताभास जो न्यायप्रवेश श्रादि में रहे। उनका निरूपण तो अप्रदर्शितान्वय और अप्रदर्शित व्यतिरेक ऐसे नए दो अन्यर्थ स्पष्ट नाम रखकर किया और न्यायप्रवेश आदि के अन वय और अव्यतिरेक शब्द को रख भी लिया तथा उन नामों से नये उदाहरण दिखाए जो उन नामों के साथ मेल खा सकें और जो न्यायप्रवेश आदि में अनित्यः शब्दः कृतकत्वादाकाशवदित्यप्रदर्शितव्यतिरेक इति । श्रनित्यः शब्दः कृतकत्वात् यदकृतकं तन्नित्यं यथाकाशमिति विपरीतव्यतिरेक इति ।'प्रमाणन० ६. ६०-७६ ।। १ 'परार्थानुमानप्रस्तावाद्दाहरणदोषा एवैते दृष्टान्तप्रभवत्वात्तु, दृष्टान्तदोषा इत्युच्यन्ते ।'-प्र० मी० २. १. २२ । २ 'अनन्वयो यत्र विनान्वयेन साध्यसाधनयोः सहभावः प्रदश्यते । यथा घटे कृतकत्वमनित्यत्वं च दृष्टमिति । अव्यतिरेको यत्र विना साध्यसाधननिवृत्त्या तद्विपक्षभावो निदयते । यथा घटे मूतत्त्वमनित्यत्वं च दृष्टमिति ।"-न्यायप्र० पृ० ६-७ । 'नित्यः शब्दोऽमूर्तत्वात्.....अम्बरवदिति........अननुगत.... ...घटवत्. ... अव्यावृत्त....'-प्रशस्त० पृ० २४७ । ३ 'अप्रदर्शिता वयः.........अनित्यशब्दः कृतकत्वात् घटवत् इति । अप्रदशितव्यतिरेको यथा अनित्यः शब्दः कृतकत्वादाकाशवदिति ।'-न्यायबि० ३. १२७, १३५ । ४ 'अनन्वयो.........यथा यो वक्ता स रागादिमान् इष्टपुरुषवत् । अव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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