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________________ २०८ प्रयोग पसन्द करते हैं क्योंकि उनकी अभिमत न्यायवाक्य परिपाटी में उदाहरण का बोधक निदर्शन शब्द आता है । इस सामान्य नाम के सिवाय भी न्यायप्रवेश और प्रशस्तपादगत विशेष नामों में मात्र पर्याय भेद है। माठर (का० ५) भी निदर्शनाभास शब्द ही पसन्द करते हैं। जान पड़ता है वे प्रशस्तपाद के अनुगामी हैं । यद्यपि प्रशस्तपाद के अनुसार निदर्शनाभास की कुल संख्या बारह ही होती हैं और माठर दस संख्या का उल्लेख करते हैं, पर जान पड़ता है कि इस संख्याभेद का कारण-अाश्रयासिद्ध नामक दो साधर्म्य-वैधर्म्य दृष्टान्ताभास की माठर ने विवक्षा नहीं की-यही है । जयन्त ने (न्यायम० पृ० ५८०) न्यायसूत्र की व्याख्या करते हुए पूर्ववर्ती बौद्ध-वैशेषिक आदि ग्रन्थगत दृष्टान्तभास का निरूपण देखकर न्यायसूत्र में इस निरूपण की कमी का अनुभव किया और उन्होंने न्यायप्रवेश वाले सभी दृष्टान्ताभासों को लेकर अपनाया एवं अपने मान्य ऋषि की निरूपण कमी को भारतीय टीकाकार शिष्यों के ढङ्ग से भक्त के तौर पर दूर किया। न्यायसार में । पृ० १३) उदाहरणाभास नाम से छः साधर्म्य के और छः वैधयं के इस तरह बारह आभास वही हैं जो प्रशस्तपाद में हैं । इसके सिवाय न्यायसार में अन्य के नाम से चार साधर्म्य के विषय में सन्दिग्ध और चार वैधर्म्य के विषय में सन्दिग्ध ऐसे आठ सन्दिग्ध उदाहरणाभास भी दिये हैं। सन्दिग्ध उदाहरणाभासों की सृष्टि न्यायप्रवेश और प्रशस्तपाद के बाद की जान पड़ती है। धर्मकीर्ति ने साधर्म्य के नव और वैधयं के नव ऐसे अठारह दृष्टान्ताभास सविस्तर वर्णन किये हैं। जान पड़ता है न्यायसार में अन्य के नाम से जो साघम्य और वैधयं के चार-चार सन्दिग्ध उदाहरणाभास दिये हैं उन अाठ सन्दिग्ध मेदों की किसी पूर्ववर्ती परम्परा का संशोधन करके धर्मकीर्ति ने साधर्म्य और वैधम्य के तीन-तीन ही सन्दिग्ध दृष्टान्ताभास रखे । दृष्टान्ताभासों की संख्या, उदाहरण और उनके पीछे के साम्प्रदायिक भाव इन सब बातों में उत्तरोत्तर विकास होता गया जो धर्मकीर्ति के बाद भी चालू रहा । जैन परम्परा में जहाँ तक मालूम है सबसे पहिले दृष्टान्ताभास के निरूपक सिद्धसेन ही हैं। उन्होंने बौद्ध परम्परा के दृष्टान्ताभास शब्द को ही चुना न कि १ 'अन्ये तु संदेहद्वारेणापरानष्टावुदाहरणभासान्वर्णयन्ति । सन्दिग्धसाध्यः ... ..... सन्दिग्धसाधनः ..... सन्दिग्धोभयः .... सन्दिग्धाश्रयः. सन्दिग्धसाध्याव्यावृत्तः .....सन्दिग्धसाधनाव्यावृत्तः.. .सन्दिग्धोभयाव्यावृत्तः .. ....सन्दिग्धाश्रयः.........।'-न्यायसार पृ० १३-१४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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