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ऊपर जो हेत्वाभाससंख्या विषयक नाना परम्पराएँ दिखाई गई हैं उन सब का मतभेद मुख्यतया संख्याविषयक है, तत्त्वविषयक नहीं। ऐसा नहीं है कि एक परम्परा जिसे अमुक हेत्वाभास रूप दोष कहती है अगर वह सचमुच दोष हो तो उसे दूसरी परम्परा स्वीकार न करती हो। ऐसे स्थल में दूसरी परम्परा या तो उस दोष को अपने अभिप्रेत किसी हेत्वाभास में अन्तर्भावित कर देती है या पक्षाभास श्रादि अन्य किसी दोष में या अपने अभिप्रेत हेत्वाभास के किसी न किसी प्रकार में।
• हेमचन्द्र ने हेत्वाभास ( प्र० मी० २.१.१६ ) शब्द के प्रयोग का अनौचित्य बतलाते हुए भी साधनाभास अर्थ में उस शब्द के प्रयोग का समर्थन करने में एक तीर से दो पक्षी का वेध किया है- पूर्वाचार्यों की परम्परा के अनुसरण का विवेक भी बतलाया और उनकी गलती भी दर्शाई । इसी तरह का विवेक माणिक्यनन्दी ने भी दर्शाया है । उन्होंने अपने पूज्य कलङ्ककथित किञ्चित्कर हेत्वाभास का वर्णन तो किया; पर उन्हें जब उस हेत्वाभास के अलग स्वीकार का औचित्य न दिखाई दिया तब उन्होंने एक सूत्र में इस ढङ्ग से उसका समर्थन किया कि समर्थन भी हो और उसके अलग स्वीकार का अनौचित्य भी व्यक्त हो- 'लक्षण एवासौ दोषो व्युत्पन्नप्रयोगस्य पक्षदोषेणैव दुष्टत्वात् ' - ( परी० ६. ३६) ।
सिद्ध हेत्वाभास
न्यायसूत्र (१.२. ८) में प्रसिद्ध का नाम साध्यसम है । केवल नाम के ही विषय में न्यायसूत्र का अन्य ग्रन्थों से वैलक्षण्य नहीं है किन्तु अन्य विषय में भी । वह अन्य विषय यह है कि जब अन्य सभी ग्रन्थ प्रसिद्ध के कम या अधिक प्रकारों का लक्षण उदाहरण सहित वर्णन करते हैं तब न्यायसूत्र और उसका भाष्य ऐसा कुछ भी न करके केवल प्रसिद्ध का सामान्य स्वरूप बतलाते हैं ।
प्रशस्तपाद और न्यायप्रवेश में प्रसिद्ध के चार प्रकारों का स्पष्ट और समानप्राय' वर्णन है । माठर ( का० ५ ) भी उसके चार भेदों का निर्देश करते हैं जो सम्भवतः उनकी दृष्टि में वे ही रहे होंगे । न्यायबिन्दु में धर्मकीर्त्ति
१ ' उभयासिद्धोऽन्यतरा सिद्ध: तद्भावासिद्धोऽनुमेयासिद्धश्चेति । प्रशस्त ० पृ० २३८ । 'उभयासिद्धोऽन्यतरा सिद्धः संदिग्धासिद्धः श्राश्रयासिद्धश्चेति । "
न्यायप्र० पृ० ३ ।
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