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________________ १६८ प्रसिद्ध आदि तीनों का ही वर्णन किया है । श्रा० हेमचन्द्र भी उसी मार्ग के अनुगामी हैं । श्रा० हेमचन्द्र ने न्यायसूत्रोक्त कालातीत आदि दो हेत्वाभासों का निरास किया है पर प्रशस्तपाद और भासर्वज्ञकथित अनध्यवसित हेत्वाभास का निरास नहीं किया है । जैन परम्परा में भी इस जगह एक मतभेद है वह यह कि अकलङ्क और उनके अनुगामी माणिक्यनन्दी आदि दिगम्बर तार्किकों ने चार हेत्वाभास बतलाए हैं जिनमे तीन तो प्रसिद्ध आदि साधारण ही हैं पर चौथा किञ्चित्कर नामक हेत्वाभास बिलकुल नया है जिसका उल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं देखा जाता । परन्तु यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि जयन्त भट्ट ने अपनी म्यायमञ्जरी' में अन्यथासिद्धापरपर्याय श्रप्रयोजक नामक एक नये हेत्वाभास को मानने का पूर्वपक्ष किया है जो वस्तुतः जयन्त के पहिले कभी से चला आता हुआ जान पड़ता है। प्रयोजक और श्रकिञ्चित्कर इन दो शब्दों में स्पष्ट भेद होने पर भी आपाततः उनके अर्थ में एकता का भास होता है । परन्तु जयन्त ने श्रप्रयोजक का जो अर्थ बतलाया है और किञ्चित्कर का जो अर्थ माणिक्यमन्दी के अनुयायी प्रभाचन्द्र ने किया है उनमें बिलकुल अन्तर है, इससे यह कहना कठिन है कि अप्रयोजक और किञ्चित्कर का विचार मूल में एक है; फिर भी यह प्रश्न हो ही जाता है कि पूर्ववर्ती बौद्ध या जैन न्यायग्रन्थों में न किञ्चित्कर का नाम निर्देश नहीं तब कलङ्क ने उसे स्थान कैसे दिया, श्रतएव यह सम्भव है कि प्रयोजक या अन्यथासिद्ध माननेवाले किसी पूर्ववर्त्ती तार्किक ग्रन्थ के आधार पर ही अकलङ्क ने श्रकिञ्चित्कर हेत्वाभास की अपने ढंग से नई सृष्टि की हो। इस किञ्चित्कर हेत्वाभास का खण्डन केवल बादिदेव के सूत्र की व्याख्या ( स्याद्वादर० पृ० १२३० ) में देखा जाता है । १ ' प्रसिद्धश्चाक्षुषत्वादिः शब्दानित्यत्वसाधने । अन्यथासम्भवाभावभेदात् स बहुधा स्मृतः ॥ विरुद्धासिद्धसंदिग्धैर किञ्चित्कर विस्तरैः । - न्यायवि० २. १६५-६ । परी० ६.२१ । २ ' अन्ये तु अन्यथासिद्धत्वं नाम तद्भ ेदमुदाहरन्ति यस्य हेतोर्धर्मिणि वृत्तिर्भवन्त्यपि साध्यधर्मप्रयुक्ता भवति न, सोऽन्यथासिद्धो यथा नित्या मनःपरमाणवो मूर्त्तत्वाद् घटवदिति ... • स चात्र प्रयोज्यप्रयोजकभावो नास्तीत्यव एवायमन्यथासिद्धोऽप्रयोजक इति कथ्यते । कथं पुनरस्याप्रयोजकत्वमवगतम् ? - न्यायम० पृ० ६०७ । ३ 'सिद्धे निर्णीते प्रमाणान्तरात्साध्ये प्रत्यक्षादिबाधिते च हेतुर्न किञ्चित्करोति इति श्रकिञ्चित्करोऽनर्थकः । - प्रमेयक० पृ० १६३ A । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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