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जैसा कि सिद्धसेन ने पर देवसूरि (प्रमाणन० ३.४०) और श्रा० हेमचन्द्र ने सामान्य लक्षण भी बतला दिया है । न्यायसूत्र का दृष्टान्तलक्षण इतना व्यापक है कि अनुमान से भिन्न सामान्य व्यवहार में भी वह लागू पड़ जाता है जब कि जैनों का सामान्य दृष्टान्तलक्षण मात्र अनुमानोपयोगी है। साधर्म्य वैधर्म्य रूप से दृष्टान्त के दो भेद और उनके अलग-अलग लक्षण न्यायप्रवेश (पृ० १. २), न्यायावतार ( का० १७, १८) में वैसे ही देखे जाते हैं जैसे परीक्षामुख ( ३. ४७ से ) आदि ( प्रमाणन० ३. ४१ से ) पिछले ग्रन्थों में।।
३–दृष्टान्त के उपयोग के संबन्ध में जैन विचारसरणी ऐकान्तिक नहीं। जैन तार्किक परार्थानुमान में जहाँ श्रोता अव्युत्पन्न हो वहीं दृष्टान्त का सार्थक्य मानते हैं । स्वार्थानुमान स्थल में भी जो प्रमाता व्याप्ति संबन्ध को भूल गया हो उसी को उसकी याद दिलाने के वास्ते दृष्टान्त को चरितार्थता मानते हैं(स्याद्वादर० ३. ४२)।
ई. १६३६ ]
[प्रमाण मीमांसा
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