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किया है उसका श्रा० हेमचन्द्र की कृति में आने का सम्भव ही न था फिर भी प्राचीन और अर्वाचीन सभी पक्ष लक्षणों के तुलनात्मक विचार के बाद इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि गङ्गेश का वह परिष्कृत विचार सभी पूर्ववर्ती नैयायिक, बौद्ध और जैन ग्रन्थों में पुरानी परिभाषा और पुराने ढङ्ग से पाया जाता है।
ई० १६३६ ]
[प्रमाण मीमांसा
दृष्टान्त विचार दृष्टान्त के विषय में इस जगह तीन बातें प्रस्तुत हैं-१-अनुमानाङ्गत्व का प्रश्न, २-लक्षण, ३-उपयोग ।
१-धर्मकीर्ति ने हेतु का त्रैरूप्यकथन जो हेतुसमर्थन के नाम से प्रसिद्ध है उसमें ही दृष्टान्त का समावेश कर दिया है अतएव उनके मतानुसार दृष्टान्त हेतुसमर्थनघटक रूप से अनुमान का अङ्ग है और वह भी अविद्वानों के वास्ते । विद्वानों के वास्ते तो उक्त समर्थन के सिवाय हेतुमात्र ही कार्यसाधक होता है (प्रमाणवा० १. २८), इसलिए दृष्टान्त उनके लिए अनुमानान नहीं। माणिक्यनन्दी (३ ३७-४२), देवसूरि ( प्रमाणन० ३. २८, ३४-३८) और श्रा० हेमचन्द्र (प्र० मी० पृ० ४७) सभी ने दृष्टान्त को अनुमानाङ्गनहीं माना है और विकल्प द्वारा अनुमान में उसकी उपयोगिता का खण्डन भी किया है, फिर भी उन सभी ने केवल मन्दमति शिष्यों के लिए परार्थानुमान में (प्रमाण न० ३. ४२, परी० ३. ४६) उसे व्यासिस्मारक बतलाया है तब प्रश्न होता है कि उनके अनुमानाङ्गत्व के खण्डन का अर्थ क्या है ? इसका जबाब यही है कि इन्होंने जो दृष्टान्त की अनुमानाङ्गता का प्रतिषेध किया है वह सकलानुमान की दृष्टि से अर्थात् अनुमान मात्र में दृष्टान्त को वे अङ्ग नहीं मानते । सिद्धसेन ने भी यही भाव संक्षिप्त रूप में सूचित किया है (न्याया० २०)। अतएव विचार करने पर बौद्ध और जैन तात्पर्य में कोई खास अन्तर नजर नहीं आता।
२-दृष्टान्त का सामान्य लक्षण न्यायसूत्र (१.१.२५) में है पर बौद्ध ग्रन्थों में वह नहीं देखा जाता। माणिक्यनन्दी ने भी सामान्य लक्षण नहीं कहा
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