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________________ रूपसे अविनाभावनियमका कथन सामान्यतः किया होगा । पर उसका सयुक्तिक समर्थन और बौद्धसम्मत रूप्यका खण्डन सर्वप्रथम पात्रस्वामीने ही किया होगा अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।। नान्यथाऽनुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ न्यायवि० पृ० १७७ यह खण्डनकारिका अकलङ्क, विद्यानन्द ( प्रमाणप० पृ० ७२ ) अादिने उद्धत की है वह पात्रस्वामिकतृक होनी चाहिए । पात्रस्वामीके द्वारा जो परसम्मत गैरूप्यका खण्डन जैमपरम्परामें शुरू हुअा उसीका पिछले अकलङ्क (प्रमाणसे० पृ० ६६ A ) आदि दिगम्बर श्वेताम्बर तार्किकोंने अनुसरण किया है। गैरूप्यखण्डनके बाद जैनपरम्परामें पाञ्चरूप्यका भी खण्डन शुरू हुआ। अतएव विद्यानन्द (प्रमाणप० पृ० ७२), प्रभाचन्द्र (प्रमेयक० पृ० १०३), वादी देवसूरि (स्याद्वादर पृ० ५२१ ) आदिके दिगम्बरीय-श्वेताम्बरीय पिछले तर्कग्रन्थोंमें रूप्य और पाञ्चरूप्यका साथ ही सविस्तर खण्डन देखा जाता है। ___ आचार्य हेमचन्द्र उसी परम्पराको लेकर अरूप्य तथा पाञ्चरूप्य दोनोंका निरास करते हैं। यद्यपि विषयदृष्टिसे श्रा० हेमचन्द्रका खण्डन विद्यानन्द आदि पूर्ववर्ती प्राचार्योंके खण्डनके समान ही है तथापि इनका शाब्दिक साम्य विशेषतः अनन्तवीर्य की प्रमेयरत्नमालाके साथ है। अन्य सभी पूर्ववर्ती जैनतार्किकोंसे प्रा. हेमचन्द्र की एक विशेषता जो अनेक स्थलोंमें देखी जाती है वह यहाँ भी है। वह विशेषता-संक्षेपमें भी किसी न किसी नए विचारका जैनपरम्परामें संग्रहीकरणमात्र है। हम देखते हैं कि प्रा० हेमचन्द्रने बौद्धसम्मत त्रैरूप्यका पूर्वपक्ष रखते समय जो विस्तृत अवतरण न्यायबिन्दुकी धर्मोत्तरीय वृत्तिमैसे अक्षरश: लिया है वह अन्य किसी पूर्ववर्ती जैन तर्कग्रन्थमें नहीं है। यद्यपि वह विचार बौद्ध तार्किककृत है तथापि जैन तर्कशास्त्र के अभ्यासियोंके वास्ते चाहे पूर्वपक्ष रूपसे भी वह विचार खास ज्ञातव्य है। ऊपर जिस 'अन्यथानुपपन्नत्व' कारिकाका उल्लेख किया है वह निःसन्देह तर्कसिद्ध होनेके कारण सर्वत्र जैनपरम्परामें प्रतिष्ठित हो गई है। यहाँ तक कि उसी कारिकाका अनुकरण करके विद्यानन्दने थोड़े हेर-फेरके साथ पाञ्चरूप्यखण्डन विषयक भी कारिका बना डाली है-(प्रमाणप० पृ० ७२)। इस कारिकाकी प्रतिष्ठा तर्कबल पर और तर्कक्षेत्रमें ही रहनी चाहिए थी पर इसके प्रभावके कायल अतार्किक भक्तोंने इसकी प्रतिष्ठा मनगढन्त ढङ्गसे बढ़ाई। और यहाँ तक बह बढ़ी कि खुद तर्कग्रन्थलेखक आचार्य भी उस कल्पित ढङ्गके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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