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(तात्पर्य० १. १. ५; १. १. ३६), जयन्त (न्यायम० पृ० ११०) श्रादि पिछले सभी नैयायिकोंने उक्त पाञ्चरूप्यका समर्थन एवं वर्णन किया है तथापि विचारस्वतन्त्र न्यायपरम्परामें वह पाञ्चरूप्य मृतकमुष्टिकी तरह स्थिर नहीं रहा । गदाधर आदि नैयायिकोंने व्याप्ति और पक्षधर्मतारूपसे हेतुके गमकतोपयोगी तीन रूपका ही अवयवादिमें संसूचन किया है। इस तरह पाञ्चरूप्यका प्राथमिक नैयायिकाग्रह शिथिल होकर त्रैरूप्य तक आ गया। उक्त पाञ्चरूप्यके अलावा छठा अज्ञातत्व रूप गिनाकर षड्प हेतु माननेवाली भी कोई परम्परा थी जिसका निर्देश और खण्टन अर्चट' ने 'नैयायिक-मीमांसकादयः' ऐसा सामान्य कथन करके किया है। न्यायशास्त्रमें ज्ञायमान लिङ्गकी करणताका जो प्राचीन मत (ज्ञायमानं लिङ्ग तु करणं न हि-मुक्ता० का० ६७) खण्डनीय रूपसे निर्दिष्ट है उसका मूल शायद उसी षड्रूप हेतुवादकी परम्परामें हो।।
जैन परम्परा हेतुके एकरूपको ही मानती है और वह रूप है अविनाभावनियम । उसका कहना यह नहीं कि हेतुमें जो तीन या पाँव रूपादि माने जाते हैं वे असत् हैं। उसका कहना मात्र इतना ही है कि जब तीन या :पाँच रूप न होने पर भी किन्हीं हेतुओंसे निर्विवाद सदनुमान होता है तब अविनाभावनियमके सिवाय सकल हेतुसाधारण दूसरा कोई लक्षण सरलतासे बनाया हो नहीं जा सकता। अतएव तीन या पाँच रूप अविनाभावनियमके यथासम्भव प्रपञ्चमात्र है। यद्यपि सिद्धसेनने न्यायावतारमें हेतुको साध्याविनाभावी कहा है फिर भी अविनाभावनियम ही हेतुका एकमात्र रूप है ऐसा समर्थन करनेवाले सम्भवतः सर्वप्रथम पात्रस्वामी हैं। तत्त्वसंग्रहमें शान्तरक्षितने जैनपरम्परासम्मत अविनाभावनियमरूप एक लक्षणका पात्रस्वामीके मन्तव्यरूपसे ही निर्देश करके खण्डन किया है । जान पड़ता है पूर्ववर्ती अन्य जैनतार्किकोंने हेतुके स्वरूप
१'षडलक्षणो हेतुरित्यपरे नैयायिकमीमांसकादयो मन्यन्ते । कानि पुनः षड्पाणि हेतोस्तैरिष्यन्ते इत्याह...त्रीणि चैतानि पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकाख्याणि, तथा अबाधितविषयत्वं चतुर्थ रूपम्,...तथा विवक्षिते करख्यत्वं रूपान्तरम्एका संख्या यस्य हेतुद्रव्यस्य तदेकसंख्यं...य येकसंख्यावच्छिन्नायां प्रतिहेतुरहि तायां हेतुव्यक्ती हेतुत्व तदा गमकत्वं न तु प्रतिहेतुसहितायामपि द्वित्वसंख्यायुक्तायाम्...तथा ज्ञातत्वं च ज्ञानविषयत्वं च, न ह्यज्ञातो हेतुः स्वसत्तामात्रेण गएमको युक्त इति ।'-हेतुबि० टी० पृ० २०५।
२. 'अन्यथेत्यादिना पात्रस्वामिमतमाशङ्कते-नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।।'-तत्त्वसं० का० १३६४-६६।
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