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मात्रग्राही भी इन्द्रिय, अतीतावस्थाविशिष्ट वर्तमानको ग्रहण कर सकनेके कारण प्रत्यभिज्ञाजनक हो सकती है । जयन्त वाचस्पतिके उक्त कथनका अनुसरण करनेके अलावा भी एक नई युक्ति प्रदर्शित करते हैं। वे कहते हैं कि स्मरणसहकृतइन्द्रियजन्य प्रत्यक्षके बाद एक मानसज्ञान होता है जो प्रत्यभिज्ञा कहलाता है । जयन्तका यह कथन पिछले नैयायिकोंके अलौकिकप्रत्यक्षवादकी कल्पनाका बीज मालूम होता है। .
जैन तार्किक प्रत्यभिज्ञाको न तो बौद्धके समान ज्ञानसमुच्चय मानते हैं और न नैयायिकादिकी तरह बहिरिन्द्रियज प्रत्यक्ष। वे प्रत्यभिज्ञाको परोक्ष ज्ञान मानते हैं । और कहते हैं कि इन्द्रियजन्य ज्ञान और स्मरणके बाद एक संकलनात्मक विजातीय मानस ज्ञान पैदा होता है वही प्रत्यभिज्ञा कहलाता है । अकलङ्कोपज्ञ (लघी० ३. १. से) प्रत्यभिज्ञाकी यह व्यवस्था जो स्वरूपमें जयन्तकी मानसज्ञान की कल्पनाके समान है वह सभी जैन तार्किकोंके द्वारा निर्विवादरूपसे मान ली गई है। प्राचार्य हेमचन्द्र भी उसी व्यवस्थाके अनुसार प्रत्यभिज्ञाका स्वरूप मानकर परपक्षनिराकरण और स्वपक्षसमर्थन करते हैं-प्र० मी० पृ० ३४.।।
मीमांसक (श्लोकवा० सू० ४. श्लो० २३२-२३७.), नैयायिक (न्यायसू० १. १. ६.) आदि उपमानको स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं जो सादृश्य-वैसदृश्य विषयक है । उनके मतानुसार ह्रस्वत्व, दीर्घत्व आदि विषयक अनेक सप्रतियोगिक ज्ञान ऐसे हैं जो प्रत्यक्ष ही हैं । जैन तार्किकोंने प्रथमसे ही उन सबका समावेश, प्रत्यभिज्ञानको मतिज्ञानके प्रकारविशेषरूपसे स्वतन्त्र प्रमाण मानकर, उसीमें किया है, जो ऐकमत्यसे सर्वमान्य हो गया है। ई० १६३६]
[प्रमाण मीसांसा
१ तात्पर्य० पृ० १३६ ।
२ ‘एवं पूर्वज्ञानविशेषितस्य स्तम्भादेविशेषणमतीतक्षणविषय इति मानसी प्रत्यभिजा ।'-न्यायम० पृ० ४६१ ।
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