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________________ प्रत्यभिज्ञा प्रत्यभिज्ञाके विषयमैं दो बातें ऐसी हैं जिनमें दार्शनिकोंका मतभेद रहा है-पहली प्रामाण्यकी और दूसरी स्वरूपकी। बौद्ध परम्परा प्रत्यभिज्ञाको प्रमाण नहीं मानती क्योंकि वह क्षणिकवादी होनेसे प्रत्यभिज्ञाका विषय माने जानेवाले स्थिरत्वको ही वास्तविक नहीं मानती। वह स्थिरत्वप्रतीतिको सादृश्यमूलक मानकर भ्रान्त ही समझती है । पर बौद्धभिन्न जैन, वैदिक दोनों परम्पराके सभी दार्शनिक प्रत्यभिज्ञाको प्रमाण मानते है। वे प्रत्यभिज्ञाके प्रामाण्यके आधार पर ही बौद्धसम्मत क्षणभङ्गका निरास और नित्यत्व-स्थिरत्व-का समर्थन करते हैं। जैन परम्परा न्याय, वैशेषिक श्रादि वैदिक दर्शनोंकी तरह एकान्त नित्यत्व किंवा कूटस्थ नित्यत्व नहीं मानती तथापि वह विभिन्न पूर्वापर अवस्थाअोम ध्रुवत्वको वास्तविक रूपसे मानती है अतएव वह भी प्रत्यभिज्ञाके प्रामाण्यको पक्षपातिनी है । प्रत्यभिज्ञाके स्वरूपके संबन्धमें मुख्यतया तीन पक्ष हैं-बौद्ध, वैदिक और जैन | बौद्धपक्ष कहता है कि प्रत्यभिज्ञा नामक कोई एक ज्ञान नहीं है किन्तु स्मरण और प्रत्यक्ष ये समुचित दो ज्ञान ही प्रत्यभिज्ञा शब्दसे व्यवहृत होते हैं । उसका 'तत्' अंश अतीत होने से परोक्षरूप होनेके कारण स्मरणग्राह्य है वह प्रत्यक्षग्राह्य हो ही नहीं सकता, जबकि 'इदम्' अंश वर्तमान होनेके कारण प्रत्यक्षमाह्य है वह अप्रत्यक्षग्राह्य हो ही नहीं सकता। इस तरह विषयगत परोक्षापरोक्षत्वके आधार पर दो ज्ञानके समुच्चयको प्रत्यभिज्ञा कहनेवाले बौद्धपक्षके विरुद्ध न्याय, मीमांसक आदि वैदिक दर्शन कहते हैं कि प्रत्यभिज्ञा यह प्रत्यक्ष रूप एक ज्ञान है प्रत्यक्ष-स्मरण दो नहीं। इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षमें वर्तमान मात्र विषयकत्वका जो नियम है वह सामान्य नियम है अतएव सामग्रोविशेषदशामें यह नियम सापवाद बन जाता है। वाचस्पति मिश्र प्रत्यभिज्ञामें प्रत्यक्षत्वका उपपादन करते हुए कहते हैं कि संस्कार या स्मरणरूप सहकारीके बलसे वर्तमान १ प्रमाणवा० ३. ५०१-२ । तत्त्वसं० का० ४४७ । २'...तस्माद् द्वे एते शाने स इति स्मरणम् अयम् इत्यनुभव:'-न्यायम० पृ० ४४६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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