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________________ १६१ नुसारी प्रमाण लक्षणमें जो बाधवर्जितपद - ( न्याया० ९ ) है वह अक्षपादके ( न्यायसू० १.१.४ ) प्रत्यक्ष लक्षणगत श्रव्यभिचारिपदका प्रतिबिम्ब है या कुमारिल कर्तृक समझे जानेवाले 'तत्रापूर्वार्थविज्ञानं प्रमाणं बाधवर्जितम्' लक्षणगत बाधवर्जित पदकी अनुकृति है या धर्मकीतीय ( न्यायबि ० १.४ ) अभ्रान्तपदका रूपान्तर है या स्वयं दिवाकरका मौलिक उद्भावन है यह एक विचारणीय प्रश्न है | जो कुछ हो पर यह तो निश्चित ही है कि ग्रा० हेमचन्द्रका बौद्ध प्रत्यक्षलक्षण विषयक खण्डन धर्मकीत्तीय परम्पराको उद्देश्यमें रखकर ही है, दिङ्नागीय परम्पराको उद्देश्यमें रखकर नहीं - प्र० मी० पृ० २३ । बौद्ध लक्षणगत कल्पनाऽपोढ पदमें स्थित कल्पना शब्दके अर्थके संबंध में खुद बौद्ध तार्किको अनेक भिन्न-भिन्न मत थे जिनका कुछ खयाल शान्तरक्षित ( तत्वसं० का ० १२१४ से ) की इससे संबन्ध रखनेवाली विस्तृत चर्चासे श्रा सकता है, एवं अनेक वैदिक और जैन तार्किक जिन्होंने बौद्ध पक्षका खण्डन किया है उनके विस्तृत ऊहापोहात्मक खण्डन ग्रन्थसे भी कल्पना शब्दके माने जानेवाले अनेक अर्थोंका पता चलता है'। खासकर जब हम केवल खण्डन प्रधान तत्वोपप्लव ग्रन्थ ( पृ० ४१) देखते हैं तब तो कल्पना शब्दके प्रचलित सम्भवित करीब-करीब सभी अर्थों या तद्विषयक मतोंका एक बड़ा भारी संग्रह हमारे सामने उपस्थित होता है । ऐसा होने पर भी श्रा० हेमचन्द्रने तो सिर्फ धर्मकीर्ति अभिमत ( न्यायबि० १. ५) कल्पना स्वरूपका - जिसका स्वीकार और समर्थन शान्तरक्षितने भी ( तत्वसं ० का ० १२१४ ) किया - ही उल्लेख अपने खण्डन ग्रन्थमें किया है अन्य कल्पनास्वरूपका नहीं । ई. १६३६ ] १. न्यायवा० पृ० ४१ | तात्पर्य० पृ० १५३ | कंदली पृ० १६१ | न्यायम० पृ० १२-६५ | तत्त्वार्थश्लो० पृ० १८५ । प्रमेयक० पृ० १८. B. । ११ Jain Education International [ प्रभारण मीमांसा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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