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________________ बौद्धप्रत्यक्ष लक्षण - बौद्ध न्यायशास्त्रमें प्रत्यक्ष लक्षण की दो परम्पराएँ देखी जाती हैं—पहली अभ्रान्तपद रहित, दूसरी अभ्रान्तपद सहित। पहली परम्पराका पुरस्कर्ता दिङ्नाग और दूसरीका धर्मकीर्ति है। प्रमाणसमुच्चय (१.३) और न्यायप्रवेश (पृ० ७) में पहली परम्पराके अनुसार लक्षण और व्याख्यान है। न्यायबिन्दु (१.४) और उसकी धर्मोत्तरीय आदि वृत्तिमें दूसरी परम्पराके अनुसार लक्षण एवं व्याख्यान है। शान्तरक्षितने तत्त्वसंग्रहमें (का० १२१४ ) धर्मकीर्तिकी दूसरी परम्पराका ही समर्थन किया है। जान पड़ता है शान्तरक्षितके समय तक बौद्ध तार्किकोंमें दो पक्ष स्पष्टरूपसे हो गए थे जिनमेंसे एक पक्ष अभ्रान्तपदके सिवाय ही प्रत्यक्षका पूर्ण लक्षण मानकर पीत शङ्खादि भ्रान्त शानोंमें भी (तत्त्वसं० का० १३२४ से) दिङ्नाग कथित प्रमाण लक्षणघटानेका प्रयत्न करता था । ___उस पक्षको जवाब देते हुए दिङ्नागके मतका तात्पर्य शान्तरक्षितने इस प्रकारसे बतलाया है कि जिससे दिङ्नागके अभ्रान्तपद रहित लक्षणवाक्यका समर्थन भी हो और अभ्रान्तपद सहित धर्मकीर्तीय परम्पराका वास्तविकत्व भी बना रहे । शान्तरक्षित और उनके शिष्य कमलशील दोनोंकी दृष्टिमें दिङ्नाग तथा धर्मकीर्तिका समान स्थान था। इसीसे उन्होंने दोनों विरोधी बौद्ध तार्किक पक्षोंका समन्वय करनेका प्रयत्न किया। ___ बौद्धेतर तर्क ग्रन्थों में उक्त दोनों बौद्ध परम्पराओंका खण्डन देखा जाता है। भामहके काव्यालङ्कार (५. ६ पृ० ३२ ) और उद्योतकरके न्यायवार्तिकमें ( १. १. ४. पृ० ४१) दिङ्नागीय प्रत्यक्ष लक्षणका ही उल्लेख पाया जाता है जब कि उद्योतकरके बादके वाचस्पति, (तात्पर्य० पृ० १५४) जयन्त (मञ्जरी पृ० ५२), श्रीधर ( कन्दली पृ० १६० ) और शालिकनाथ (प्रकरण ५० पृ० ४७ ) आदि सभी प्रसिद्ध वैदिक विद्वानोंकी कृतियोमें धर्मकीर्तीय प्रत्यक्ष लक्षणका पूर्वपक्ष रूपसे उल्लेख है । जैन आचार्योंने जो बौद्धसम्मत प्रत्यक्ष लक्षणका खण्डन किया है उसमें दिङ्नागीय और धर्मकीर्तीय दोनों लक्षणोंका निर्देश एवं प्रतिवाद पाया जाता है। सिद्धसेन दिवाकरकी कृति रूपसे माने जानेवाले न्यायावतारमें जैन परम्परा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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