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प्रत्यक्ष विचार
प्रत्यक्षके संबन्धमें अन्य मुद्दों पर लिखनेके पहले यह जता देना जरूरी है कि प्राचीन समयमै लक्षणकार ऋषि प्रत्यक्ष लक्षणका लक्ष्य कितना समझते थे अर्थात् वे जन्य प्रत्यक्ष मात्रको लक्ष्य मानकर लक्षण रचते थे, या जन्य-नित्यसाधारण प्रत्यक्षको लक्ष्य मानकर लक्षण रचते थे जैसा कि उत्तरकालीन नैयायिकोंने आगे जाकर जन्य-नित्य साधारण प्रत्यक्षका लक्षण रचा है ? जहाँ तक देखा गया उससे यही जान पड़ता है कि प्राचीन समयके लक्षणकारोंमें से किसीने चाहे वह ईश्वराविरोधी नैयायिक वैशेषिक ही क्यों न हो जन्यनित्य साधारण प्रत्यक्षका लक्षण बनाया नहीं है। ईश्वराविरोधी हो या ईश्वरविरोधी सभी दर्शनकारोंके प्राचीन मूल ग्रन्थों में एक मात्र जन्यप्रत्यक्षका ही निरूपण है। नित्यप्रत्यक्षका किसीमें सम्भव भी है और सम्भव है तो वह ईश्वरमें ही होता है इस बातका किसी प्राचीन ग्रन्थमें सूचन तक नहीं । अपौरुषेयत्वके द्वारा वेदके प्रामाण्यका समर्थन करनेवाले मीमांसकोंके विरुद्ध न्याय-वैशेषिक दर्शनने यह स्थापन तो शुरू कर दिया कि वेद शब्दात्मक और अनित्य होनेसे उसका प्रामाण्य अपौरुषेयत्व-मूलक नहीं किन्तु पौरुषेयत्व-मूलक ही है। फिर भी उस दर्शनके प्राचीन विद्वानोंने वेद-प्रणेतारूपसे कहीं ईश्वरका स्पष्ट स्थापन नहीं किया है। उन्होंने वेदको प्राप्त ऋषिप्रणीत कह कर ही उसका प्रामाण्य मीमांसक-सम्मत प्रक्रियासे भिन्न प्रक्रिया द्वारा स्थापित किया
और साथ ही वेदाप्रामाण्यवादी जैन बौद्ध आदिको जवाब भी दे दिया कि वेद प्रमाण है क्योंकि उसके प्रणेता हमारे मान्य ऋषि पास ही रहे | पिछले
१. वैशे० ३. १. १८ । 'इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्'-न्यायसू० १. १. ४ । 'प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टम्'-सांख्यका० ५। सांख्यसू० १.८६ । योगभा० १.७ । 'सत्संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणाम्........-जैमि० १. १. ४ । 'श्रात्मेन्द्रियमनोऽर्थात् सन्निकर्षात् प्रवर्तते । व्यक्ता तदात्वे या बुद्धिः प्रत्यक्ष सा निरूप्यते ॥'चरकसं० ११, २० ।
२. न्यायसू० १. १. ७, २. १. ६६ । वैशे० ६.१.१।
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