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________________ है जो सिद्धसेन और समन्तभद्रने। अलबत्ता उन्होंने अकलङ्कनिर्दिष्ट प्रमाण-फलके भेदाभेदका जैन मन्तव्य सूत्रित किया है पर उन्होंने मध्यवर्ती फलोंको सापेक्षभावसे प्रमाण और फल कहनेकी अकलङ्कसूचित जैनशैलीको सूत्रित नहीं किया। विद्यानन्दकी तीक्ष्ण दृष्टि अज्ञाननिवृत्ति और स्व-परव्यवसिति शब्दकी ओर गई। योगाचार और सौत्रान्तिक सिद्धान्तके अनुसार प्रमाणके फलरूपसे फलित होनेवाली स्व और पर व्यवसितिको ही विद्यानन्दने अज्ञाननिवृत्तिरूप बतलाया (तत्त्वार्थश्लो० पृ० १६८; प्रमाणप० पृ० ७६ ) जिसका अनुसरण प्रभाचन्द्रने मार्तण्डमैं और देवसूरिने रत्नाकरमें किया। अब तकमैं जैनतार्किकोंका एक स्थिर-सा मन्तव्य ही हो गया कि जिसे सिद्धसेन-समन्तभद्रने अज्ञाननिवृत्ति कहा है वह वस्तुतः स्व-परव्यवसिति ही है । श्रा. हेमचन्द्रने प्रस्तुत चर्चामें पूर्ववर्ती सभी जैमतार्किकोंके मतोंका संग्रह तो किया ही है पर साथ ही उसमें अपनी विशेषता भी दिखाई है। उन्होंने प्रभाचन्द्र और देवसूरिकी तरह स्व-परव्यवसितिको ही अज्ञाननिवृत्ति न कहकर दोनोंको अलग-अलग फल माना है । प्रमाण और फलके अभेद पक्षमें कुमारिल ने बौद्धोंके ऊपर जो दोष दिये थे और जिनका निरास धर्मोत्तरकी न्यायबिन्दुव्याख्या तथा शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रहमें है उन्हीं दोषोंका निवारण बौद्ध ढंगसे करते हुए भी प्रा० हेमचन्द्रने अपना वैयाकरणत्व आकर्षक तार्किकशैलीमें व्यक्त किया है। जैसे अनेक विषयोंमें श्रा० हेमचन्द्र अकलङ्कका खास अनुसरण करते हैं वैसे ही इस चर्चा में भी उन्होंने मध्यवर्ती फलोंको सापेक्षभावसे प्रमाण और फल कहनेवाली अकलङ्कस्थापित जैनशैलीको सूत्रमें शब्दशः स्थान दिया । इस तरह हम प्रमाण-फलके चर्चाविषयक प्रस्तुत सूत्रोंमें वैदिक, बौद्ध और जैन सभी परम्पराओंका यथासम्भव जैनमत रूपसे समन्वय एक ही जगह पाते हैं । ई० १६३६] [प्रमाण मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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