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पंडित सुखलालजी शौचादिके लिये एक स्टेशन पर उतरे, तो गाड़ी ही छूट गई । पर ज्यों-त्यों कर वे अंतमें काशी पहुँचे ।
पंडितजीके जीवनके दो प्रेरक बल हैं - जाग्रत जिज्ञासा और अविरत प्रयत्न । इन दोनों गुणों के कारण उनका जीवन सदा नवीन एव उल्लासपूर्ण रहा है । अपनी जिज्ञासा-तुष्टिके लिये वे किसी भी प्रकारका पुरुषार्थ करनेसे नहीं हिचकिचाते ।
भूखा ज्यों भोजनमें लग जाता है, काशी पहुँचकर सुखलाल त्यों अध्ययनमें संलग्न हो गये। वि० सं० १९६३ तक, मात्र तीन ही वर्षमें, उन्होंने अठारह हजार श्लोक-परिमाण सिद्धहेमव्याकरण कंठस्थ कर लिया। (पंडितजीको आज भी समग्र व्याकरण टीकाके साथ स्मरण है।) व्याकरणके साथ साथ न्याय और साहित्यका भी अध्ययन आरंभ कर दिया। इससे पंडितजीकी जिज्ञासा और बढ़ने लगी। वे नये नये पुरुषार्थ करनेको उद्यत हुए । जब पाठशालाका वातावरण उन्हें अध्ययनके अधिक अनुकूल नहीं जंचा, तो वे उससे मुक्त होकर स्वतंत्र रूपसे गंगाजीके तटपर भदैनी घाट पर रहने लगे । उनके साथ उनके मित्र व्रजलालजी भी थे । बनारस जैसे सुदूर प्रदेशमें पंडितजीका कोई सम्बन्धी नहीं था, खर्चकी पूरी व्यवस्था भी नहीं थी। जिज्ञासा-वृत्ति अदम्य थी, अतः आये दिन उन्हें विकट परिस्थितिका सामना करना पड़ता था । आर्थिक संकट तो इस स्वप्नदर्शी नवयुवकको बेहद तंग करता था । अंतमें सोचा-यदि भारतमें व्ययकी व्यवस्था नहीं हुई तो अमरिकाके मि० रोकफेलरसे, जो अनेक युवकोंको छात्रवृत्तियाँ दिया करते हैं, आर्थिक सहायता प्राप्त कर अमरिका पहुँचेंगे । पर दैवयोगसे आवश्यक धन प्राप्त हो गया और अमरिका जानेका विचार सदाके लिये छूट गया ।
सुखलाल अब विद्योपार्जनमें विशेष कटिबद्ध हुए। उन दिनों किसी वैश्य विद्यार्थीके लिये ब्राह्मण पंडितसे संस्कृत साहित्यका ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त कठिन कार्य था, पर सुखलाल हताश होनेवाले व्यक्ति नहीं थे। चिलचिलाती हुई धूपमें या कड़ाके की सर्दी में वे रोज आठ-दस मील पैदल चलकर पंडितोंके घर पहुँचते, सेवा-शुश्रूषा कर उन्हें संतुष्ट करते और ज्यों-त्यों कर अपना हेतु सिद्ध करते । इस प्रकार अविरत परिश्रमसे छात्र सुखलाल पंडित सुखलालजी बनने लगे ।
___ गंगा-तटके इस निवास-कालके बीच कभी कभी पंडितजी अपने एक हाथसे रस्सीके एक सिरेको बांधकर और दूसरा सिरा किसी दूसरेको सौंपकर गंगा
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