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________________ संक्षिप्त परिचय सबमें सत्यांश तो क्वचित् ही है, विशेषतः दंभ और मिथ्यात्व है। उसमें अज्ञान, अंधश्रद्धा तथा वहमको विशेष बल मिलता है। उनका परित्याग कर वे फिर जीवन-साधनामें लग गये-ज्ञानमार्गकी ओर प्रवृत्त हुए। वि० सं० १९६० तक वे लीमली गांवमें यथासंभव ज्ञानोपार्जन करते रहे । अर्धमागधीके आगम तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थोंका पठन-मनन कर उन्हें कठस्थ कर लिया। साथ ही अनेक संस्कृत पुस्तकों तथा रासों, स्तवनों और सज्झायों जैसी असंख्य गुजराती कृतियोंको भी ज़बानी याद कर लिया। पूज्य लाधाजी स्वामी और उनके विद्वान शिष्य पूज्य उत्तमचंदजी स्वामीने उन्हें सारस्वत-- व्याकरण पढ़ाया, पर इससे उन्हें संतोष नहीं हुआ। लीमलीमें नये अभ्यासकी सुविधा नहीं थी। उन्हें इन दिनों यह भी अनुभव होने लगा कि अपने समस्त शास्त्र-ज्ञानको व्यवस्थित करनेके लिये संस्कृत भाषाका सम्यक् ज्ञान अनिवार्य है। संस्कृतके विशिष्ट अध्यापनकी सुविधा लीमलीमें थी ही नहीं । सुखलाल इस अभावसे बेचैन रहने लगे । प्रश्न यह था कि अब किया क्या जाय ? काशीमें विद्याध्ययन - दैवयोगसे उसी समय उन्हें ज्ञात हुआ कि पूज्य मुनि महाराज श्री. धर्मविजयजी ( शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्री. विजयधर्मसूरीश्वरजी) ने जैन विद्यार्थियोंको संस्कृत-प्राकृत भाषाके पंडित बनाने के लिये काशी में श्री. यशोविजय जैन संस्कृत पाठशाला स्थापित की है। इससे सुखलाल अत्यंत प्रसन्न हो गये। उन्होंने अपने कुटुम्बी-जनोंसे गुप्त पत्रव्यवहार करके बनारसमें अध्ययन करनेकी महाराजजीसे अनुमति प्राप्त कर ली, पर दृष्टिविहीन इस युवकको बनारस तक भेजनेको कुटुम्बी-जन राजी हो केसे ? मगर सुखलालका मन तो अपने संकल्प पर दृढ था । ज्ञान-पिपासा इतनी अधिक तीव्र थी कि उसे कोसी दबा नहीं सकता था । साहस करनेकी वृत्ति तो जन्मजात थी ही । फलतः वे पुरुषार्थ करनेको उद्यत हुए । एक दिन उन्होंने अपने अभिभावकोंसे कहा“अब मुझे आपमेंसे कोई रोक नहीं सकता । मैं बनारस जरूर जाऊँगा । अगर आप लोगोंने स्वीकृति नहीं दी तो बड़ा अनिष्ट होगा ।" घरके सभी लोग चुप थे। एक दिन पंडितजी अपने साथी नानालालके साथ बनारसके लिये रवाना हो ही गये । बिलकुल अनजाना प्रदेश, बहुत लम्बी यात्रा और भला-भोला साथी-इन सबके कारण उन्हें यात्रामें बड़ी परेशानी उठानी पड़ी। एक बार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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