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________________ १४८ व्यवस्था, मोक्षोपाय रूपसे दान आदि शुभ कर्मका विधान और दीक्षा आदिका उपादान ये सब घट नहीं सकते। भारतीय दर्शनोंकी तारिखक चिन्ताका उत्थान और खासकर उसका पोषण एवं विकास कर्मसिद्धान्त एवं संसारनिवृत्ति तथा मोक्षप्राप्सिकी भावनामैसे फलित हश्रा है। इससे शुरू में यह स्वाभाविक था कि हर एक दर्शन अपने वादको यथार्थतामें और दसरे दर्शनोंके वादकी अयथार्थतामें उन्हीं कर्मसिद्धान्त श्रादिकी दुहाई दें । पर जैसे-जैसे अध्यात्ममूलक इस दार्शनिक क्षेत्रमें तर्कवाद का प्रवेश अधिकाधिक होने लगा और वह क्रमश: यहाँ तक बढ़ा कि शुद्ध तकवादके सामने श्राध्यात्मिकवाद एक तरहसे गौण-सा हो गया तब केवल नित्यत्वादि उक्त वादोंकी सत्यताकी कसौटी भी अन्य हो गई। तर्कने कहा कि जो अर्थक्रियाकारी है वही वस्तु सत् हो सकती है दूसरी नहीं । अर्थक्रियाकारित्व की इस तार्किक कसौटीका श्रेय जहाँ तक ज्ञात है, बौद्ध परम्पराको है। इससे यह स्वाभाविक है कि बौद्ध दार्शनिक क्षणिकत्वके पक्षमें उस कसौटीका उपयोग करें और दूसरे वादोंके विरुद्ध । हम देखते हैं कि हुश्रा भी ऐसा ही। बौद्धोंने कहा कि जो क्षणिक नहीं वह अर्थक्रियाकारी हो नहीं सकता और जो अर्थक्रियाकारी नहीं वह सत् अर्थात् पारमार्थिक हो नहीं सकता-ऐसी व्याप्ति निर्मित करके उन्होंने केवल नित्यपक्षमें अर्थक्रियाकारित्वका असंभव दिखानेके वास्ते क्रम और योगपद्यका जटिल विकल्पजाल रचा और उस विकल्पजालसे अन्तमें सिद्ध किया कि केवल नित्य पदार्थ अर्थक्रिया कर ही नहीं सकता अतएव वैसा पदार्थ पारमार्थिक हो नहीं सकता ( वादन्याय पृ० ६)। बौद्धोंने केवलनित्यत्ववाद ( तत्त्व सं० का० ३६४) की तरह जैनदर्शनसम्मत परिणामिनित्यत्ववाद अर्थात् द्रव्यपर्यायात्मकवाद या एक वस्तुको द्विरूप माननेवाले वादके निरासमें भी उसी अर्थक्रियाकारित्वकी कसौटीका उपयोग किया-(तत्त्व सं० का० १७३८)। उन्होंने कहा कि एक ही पदार्थ सत् असत् उभयरूप नहीं बन सकता। क्योंकि एक ही पदार्थ अर्थक्रियाका करनेवाला और नहीं करनेवाला कैसे कहा जा सकता है ? इस तरह बौद्धों के प्रतिवादी दर्शन वैदिक और जैन दो विभाग में बैट जाते हैं। १ 'दव्वठियस्स जो चेव कुणइ सो चेव वेयए णियमा । अण्णो करेइ अण्णो परिभुंजइ पजयणयस्स ।।'-सन्मति० १. ५२। 'न बन्धमोक्षौ क्षणिकैकसंस्थौ न संवृतिः सापि मृषास्वभावा । मुख्याहते गौणविधिर्न दृष्टो विभ्रान्तदृष्टिस्तव दृष्टितोऽन्या ॥'-युक्त्य० का १५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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