SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपने विषयके सूक्ष्म चिंतनमें ही नहीं पर प्रतिवादीको चुप करनेके लिए भी काममें लाने लगे। बारहवीं सदीके गंगेशने 'अवच्छेदकता', 'प्रकारता', 'प्रतियोगिता' श्रादि नवीन परिभाषाके द्वारा न्यायशास्त्रके बाह्य तथा आन्तरिक स्वरूपमें युगान्तर उपस्थित किया और उसके उत्तराधिकारी मैथिल एवं बंगाली तार्किौंने उस दिशामें आश्चर्यजनक प्रगति की । न्यायशास्त्रकी इस सूक्ष्म पर जटिल परिभाषाको तथा विचारसरणीको वैयाकरणों और आलंकारिकों तकने अपनाया । वे न्यायकी इस नवीन परिभाषाके द्वारा प्रतिवादियोंको परास्त करनेकी भी वैसी ही कोशिश करने लगे, जैसी कुछ दार्शनिक विद्वान् व्याकरण और अलंकारकी चमत्कृतिके द्वारा करने लगे थे। नागोजी भट्टके शब्देन्दुशेखर आदि ग्रन्थ तथा जगन्नाथ कविराजके रसगंगाधर आदि ग्रन्थ नवीन न्यायशैलीके जीवंत नमूने हैं। यद्यपि 'हेतुविडम्बनोपाय' की शैली 'तत्त्वोपप्लवसिंह' की शैली जैसी शुद्ध वैतण्डिक ही है, फिर भी दोनोंमें युगभेदका अन्तर स्पष्ट है । तत्त्वोपप्लवसिंहमें दार्शनिक विचारोंकी सूक्ष्मता और जटिलता ही मुख्य है, भाषा और अलंकारकी छटा उसमें वैसी नहीं है। जब कि हेतुविडम्बनोपायमें वैयाकरणोंके तथा आलंकारिकोंके भाषा-चमत्कारकी आकर्षक छटा है । इसके सिवाय इन दोनों ग्रन्थों में एक अन्तर और भी है जो प्रतिपाद्य विषयसे संबंध रखता है। तत्त्वोपप्लवसिंहका खण्डनमार्ग समग्र तत्वोंको लक्ष्यमें रखकर चला है, अतएव उसमें दार्शनिक परंपराओं में माने जानेवाले समस्त प्रमाणोंका एक-एक करके खण्डन किया गया है, जब कि हेतुविडम्बनोपायका खण्डनमार्ग केवल अनुमानके हेतुको लक्ष्यमें रख कर शुरू हुआ है, इसलिए उसमें उतने खण्डनीय प्रमाणोंका विचार नहीं है जितनोंका तत्त्वोपप्लवमें है । . इसके सिवाय एक बड़े महत्त्वकी ऐतिहासिक वस्तुका भी निर्देश करना यहाँ जरूरी है। तत्त्वोपप्लवसिंहका कर्ता जयराशि तत्त्वमात्रका वैतण्डिक शैलीसे खण्डन करता है और अपने को बृहस्पतिकी परम्पराका बतलाता है । जब कि हेतुविडम्बनोपायका कर्ता जो कोई जैन है-जैसा कि उसके प्रारम्भिक भागसे स्पष्ट है---श्रास्तिक रूपसे अपने इष्ट देवको नमस्कार भी करता है. और केवल खण्डनचातुरीको दिखानेके वास्ते ही हेतुविडम्बनोपायकी रचना १. 'प्रणम्य श्रीमदर्हन्तं परमात्मानमव्ययम् । हेतोविडम्बनोपायो निरपायः प्रतायते ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy