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माक्यकारिका, सांख्यकारिका, तस्वार्थाधिगमसूत्र, अभिधर्मकोष, प्रशस्तपादभाष्य, न्यायप्रवेश, न्यायबिन्दु श्रादि ।
(२) कुछ ग्रन्थ ऐसे हैं जिनमें स्वसंप्रदाय के प्रतिपादनका भाग अधिक और अन्य संप्रदायके खण्डनका भाग कम है - जैसे शाबरभाष्य |
( ३ ) कुछ ग्रन्थ ऐसे हैं जिनमें परमतोंका खण्ड़न विस्तारसे है और स्वमतका स्थापन थोड़े में हैं, जैसे - माध्यमिक कारिका, खण्डनखण्डखाद्य श्रादि ।
(४) कुछ ग्रन्थ ऐसे हैं जिनमें खण्डन और साथ-ही-साथ चलता है, जैसे- वात्स्यायन भाष्य, र्तिक, शांकरभाष्य, प्रमाणवार्तिक आदि ।
मण्डन समप्रमाण है या मीमांसा श्लोकवा
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( ५ ) बहुत थोड़े पर ऐसे ग्रंथ भी मिलते हैं जिनमें स्वपक्ष के प्रतिपादनका नामोनिशान तक नहीं है और दूसरेके मन्तव्योंका खण्डन ही खण्ड़न मात्र है । ऐसे शुद्ध वैतडिक शैलीके ग्रन्थ इस समय हमारे सामने दो हैं - एक प्रस्तुत तत्त्वोपप्लवसिंह और दूसरा हेतु विडम्बनोपाय |
इस विवेचना से प्रस्तुत तत्वोपप्लव ग्रन्थकी शैलीका दार्शनिक शैलियों में क्या स्थान है यह हमें स्पष्ट मालूम पड़ जाता है ।
यद्यपि 'तत्वोपप्लवसिंह और 'हेतुविडम्बनोपाय' इन दोनोंकी शैली शुद्ध खण्डनात्मक ही है, फिर भी इन दोनोंकी शैली में थोड़ासा अन्तर भी है जो मध्ययुगीन और अर्वाचीनकालीन शैलीके भेदका स्पष्ट द्योतक है ।
दसवीं शताब्दी के पहले के दार्शनिक साहित्य में व्याकरण और अलंकारके पाण्डित्यको पेट भरकर व्यक्त करनेकी कृत्रिम कोशिश नहीं होती थी । इसी तरह उस युगके व्याकरण तथा अलंकार विषयक साहित्य में, न्याय एवं दार्शनिक तत्त्वोंको लबालब भर देनेकी भी अनावश्यक कोशिश नहीं होती थी । जब कि दसवीं सदी के बाद के साहित्य में हम उक्त दोनों कोशिशें उत्तरोत्तर अधिक परिमाण में पाते हैं । दसवीं सदीके बादका दार्शनिक, अपने ग्रन्थकी रचना में तथा प्रत्यक्ष चर्चा करने में, यह ध्यान अधिक से अधिक रखता है, कि उसके ग्रन्थ में और संभाषण में, व्याकरणके नव-नव और जटिल प्रयोगोंकी तथा आलंकारिक तत्वोंकी वह अधिक से अधिक मात्रा किस तरह दिखा सके । वादी देवसूरिका स्याद्वादरत्नाकर, श्रीहर्षका खण्डनखण्डखाद्य, रत्नमण्डनकी जल्पकल्पलता आदि दार्शनिक ग्रन्थ उक्त वृत्ति के नमूने हैं । दूसरी तरफसे वैयाकरणों और आलंकारिकोंमें भी एक ऐसी वृत्तिका उदय हुत्रा, जिससे प्रेरित होकर वे न्यायशास्त्र के नवीन तत्त्वोंको एवं जटिल परिभाषाको
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