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________________ ५६ में या बिहारकी सीमाके आसपास ही हुए हैं। मेरे ख्याल से मीमांसाकार जैमिनी और बादरायण भी बिहारके ही होने चाहिए । पूर्वोत्तर मीमांसा अनेक धुरीण प्रमुख व्याख्याकार मिथिलामें ही हुए हैं जो एक बार सैकड़ों मीमांसक विद्वानोंका धाम मानी जाती थी । बंगाल, दक्षिण आदि अन्य भागों में न्याय विद्याकी शाखा प्रशाखाएँ फूटी हैं पर उनका मूल तो मिथिला ही है । वाचस्पति, उदयन, गंगेश आदि प्रकाण्ड विद्वानोंने दार्शनिक विद्याका इतना अधिक विकास किया है कि जिसका असर प्रत्येक धर्मपरम्परापर पड़ा है । तक्षशिला के ध्वंसके बाद जो बौद्ध विहार स्थापित हुए उनके कारण तो विहार काशी बन गया था। नालन्दा, विक्रमशीला, उदन्तपुरी जैसे बड़े-बड़े विहार और जगत्तल जैसे साधारण विहार में बसनेवाले भिक्षुकों और अन्य दुर्वेक मिश्र जैसे ब्राह्मण विद्वानोंने जो संस्कृत बौद्ध साहित्यका निर्माण किया है उसकी गहराई, सूक्ष्मता और बहुश्रुतता देखकर आज भी बिहार के प्रति श्रादर उमड़ आता है । यह बात भली-भाँति हमारे लक्षमें आ सकती है कि बिहार धर्मकी तरह विद्याका भी तीर्थ रहा है। विद्या केन्द्रोंमें सर्व विद्याओंके संग्रहकी आवश्यकता जैसा पहले सूचित किया है कि धर्मपरम्पराओं की अपनी दृष्टिका तथा व्यवहारोंका युगानुरूप विकास करना ही होगा । वैसे ही विद्याकी सब परम्पराको भी अपना तेज कायम रखने और बढ़ाने के लिए अध्ययन अध्यापनकी प्रणालीके विषय में नए सिरे से सोचना होगा । प्राचीन भारतीय विद्याएँ कुल मिलाकर तीन भाषाओं में समा जाती हैंसंस्कृत, पालि और प्राकृत । एक समय था जब संस्कृतके धुरन्धर विद्वान् भी पालि या प्राकृत शास्त्रोंको जानते न थे या बहुत ऊपर-ऊपर से जानते थे । ऐसा भी समय था जब कि पालि और प्राकृत शास्त्रोंके विद्वान् संस्कृत शास्त्रोंकी पूर्ण जानकारी रखते न थे । यही स्थिति पालि और प्राकृत शास्त्रोंके जानकारों के बीच परस्पर में भी थी । पर क्रमशः समय बदलता गया । श्राज तो पुराने युगने ऐसा पलटा खाया है कि इसमें कोई भी सच्चा विद्वान् एक या दूसरी भाषाकी तथा उस भाषामें लिखे हुए शास्त्रोंकी उपेक्षा करके नवयुगीन विद्यालयों और महाविद्यालयोंको चला ही नहीं सकता । इस दृष्टिसे जब विचार करते हैं तब स्पष्ट मालूम पड़ता है कि यूरोपीय विद्वानोंने पिछले सवा सौ वर्षों में भारतीय विद्याओं का जो गौरव स्थापित किया है, संशोधन किया है उसकी बराबरी करने के लिए तथा उससे कुछ आगे बढ़ने के लिए हम भारतवासियोंको अत्र अध्ययन • अध्यापन, चिन्तन, लेखन और संपादन- विवेचन श्रादिका क्रम अनेक प्रकार - Jain Education International · For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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