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पंडितजीके सामाजिक और धार्मिक लेखोंका प्रधान तत्त्व है-बुद्धिशुद्ध श्रद्धासे समन्वित सुसंवादी धार्मिक समाजका निर्माण । व्यक्तिके वैयक्तिक
और सामाजिक दोनों प्रकारके कर्तव्योंमें सामञ्जस्य होना आवश्यक है। केवल प्रवर्तक या केवल निवर्तक, सच्चा धर्म नहीं हो सकता; किन्तु प्रवृत्ति और निवृत्तिका समन्वय ही सच्चा धर्म हो सकता है। बाह्य आचारोंकी आवश्यकता,
आन्तरशुद्धिमें यदि वे उपयोगी हैं, तब ही है, अन्यथा नहीं; कोरा बाह्याचार निरर्थक है । जीवन में प्राथमिकता आन्तरशुद्धिकी है, बाह्याचारकी नहीं। इन्हीं बातोंका शास्त्र और बुद्धिके बलसे पंडितजीने अपने लेखोंमें विशद रूपसे निरूपण किया है।
पंडितजीने दर्शनके क्षेत्रमें भारतीय दर्शनोंके प्रमाण-प्रमेयके विषयमें जो लिखा है उसका संग्रह 'दार्शनिक मीमांसा' नामक विभागमें किया गया है। उससे उनका बहुश्रुतत्व तो प्रकट होता हो है, किन्तु साथ ही दार्शनिकोंमें अपने अपने अभिमत दर्शनके प्रति जो कदाग्रह होता है उसके स्थानमें पंडितजीमें समन्वय और माध्यस्थ्य देखा जाता है। यह समन्वय और माध्यस्थ्य केवल जैनदर्शनके अभ्याससे हो आया हो, ऐसी बात नहीं, किन्तु गांधीजीके संसर्गसे, उनके जीवनदर्शनके जीवित अनेकान्तके जो पाठ पंडितजीने पढे हैं, उसका भी यह फल है । यही कारण है कि निराग्रही हो कर दार्शनिक विविध मन्तव्यों. की तुलना करके उनका सारसर्वस्व तटस्थ की तरह वे ग्रहण कर सकते हैं। ____ यह सच है कि पंडितजीका कार्यक्षेत्र जैनधर्म और जैनदर्शन विशेषतः रहा है, किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि उनका जैनधर्म और दर्शनमें कदाग्रह है। इस बातकी प्रतीति प्रस्तुत संग्रहगत प्रत्येक लेख करा सकेगा। किसी भी विषय का प्रतिपादन करना हो, तब दो विशेषताएँ पंडितजीकी अपनी हैं, जो उनके लेखोंमें प्रायः सर्वत्र व्यक्त होती हैं-एक है, ऐतिहासिक दृष्टिकी और दूसरी है, तुलनात्मक दृष्टिकी । इन दो दृष्टिओंसे विषयका प्रतिपादन करके वे वाचकके समक्ष वस्तुस्थिति रख देते हैं । निर्णय कभी वे दे
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