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१४. भावणा-संधि [कर्ता : जयदेव मुनि रचना-समय :ई. स. १४००पूर्व, लेखन-समय : ई. स. १४१३]
ध्रुवक पणमवि गुण-सायर भुवण-दिवायर जिण चवीस-इ इक्क-मणि अप्पं पडिबोहइ मोह निरोहइ कोइ भव-भावणवसिण ॥१
[१] रे जीव निसुणि चंचल-सहाव मिल्हे विगु सयल वि बज्झ भाव नवभेय-परिग्गहु विविह-जालु संसारि 'अत्थि सहु इंदियालु २ पिय-पुत्त-मित्त-घर-घरणि-जाय इह-ले इय सवि वि सुह-सहाय । नवि अत्थि कोइ तुह सरण मुक्ख ईक्कल्ल सहिसि तिरि-नरय-दुक्ख ४ अच्छउ ता दूरि णिय-वर(१)-गेह निय-देह वि नवि अप्पणउं एह इणि कारणि मन करि 'मुढ पावु ससि-निव जिम होसिइ पच्छयावु ६ मन रच्चि रमणि-रमणीय-देहि वस-मंस-रुहिर-मच-मुत्त-गेहि दढ-देवि-रत्त मालव-नरिंदु गय-रज्जम्पाणु हुअ पुहइचंदु ८ इक्केण वि आसवि पुरिस सत्तु अहि पडइ झत्ति सिढिलेवि गत्तु पंचासव-सत्तउ जु जि होइ तसु का गइ त्ति नवि मुणइ कोइ १० पंचिंदिय-विसय-पसंग-रेसि
मण-वयण-काय नवि संवरेसि तं वाहसि कत्तिय गल-पएसि जं अट्ठ-कम्म नवि निज्जरेसि १२ अह सत्त नरय तिरि मेरु पंच अस्संख दोव-सायर-पवंच बारह नव सग्ग पणुत्तराणि इह लोगह वित्थर निउण जाणि १४ चउविह-कसाय-विस-हरण-मंत जिण-वयण सुणहिं जे पुन्नवंत घण-पुलइयंग मणि सद्दहति सिव-लच्छि-वच्छि ते हार हुति १६ वर-हरि करि-रह-भड-सज्ज रज्ज पाविज्जइ भवि भवि भूरि भज्ज न वि' लब्भइ दुल्हु पुण पवित्तु अरिहंत-देव-गुरु-साहु-तत्तु १८
घत्ता इय बारह भावण सवण-सुहावण भणवि एव जीवह सरिसु दुल्लहु मणु पत्तणु धम्म-पवत्तणु दस-दिट्ठतिहिं वज्जरिम् ॥१९ 1. A इत्थ सउ 2 B सव्व 3. B एकल्लु सहसि 4. B जीव पात्र 5. B पुरिस सत्त 6. A मणुअलोइ 7. B दुल्लइ लब्भह 8. B भावेण वि जीव०
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