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संधिकाव्य-समुच्चय
कडवकना अंतमां 'ध्रुवक' के 'घत्ता' नामे आळखाती एक एक कडी रहेती.' जो के उपलब्ध संधिबंध काव्योमां कडवकनी कडीओनी संख्या नियत होय तेम जगातुं नथी. ते आठथी मांडी वीश-पचीस सुधीनी पण जोवा मळे छे. कडवकनी पंक्तिओ अंत्यानुप्रासवाळी अने मात्रामेळ छंद जेवा के पद्धडिआ, वदनक, पारणक इत्यादिमांथी कोई एकमां रचवामां आवती. संधिनी आरंभनी कडी तथा दरेक कडवकने अंते आवती कडी-घत्ता-नो छंद कडवकना छंदथी जुदो रहेतो.
आ 'संधिबंध' महाकाव्यन लघु स्वरूप आपणुं संधिकाव्य छे. संधिकाव्यन बाह्य स्वरूप 'संधिबंध'ना एक संधि जेवु छे.-ध्रुवक एटले संधिनी शरूआतनी एकाद कडी, पछी प्रासबद्ध पंक्तियुगलोवाळां कडवको अने दरेक कडवकना अंतमां घत्ता. कडवकोनी संख्या क्वचित एकाद -बे परंतु मोटा भागे पांचथी पंदर सुधी अने दरेक कडवकनी अंदर आठथी मांडी चालीस सुधीनी प्रासबद्ध पंक्तिओ. केटलांक संधिकाव्योमा अंतमां कर्तानु नाम के परिचय आपती * लघु प्रशस्ति. आ थयुं संधि-काव्यनु बाह्य कलेवर.
प्राकृत कथा के काव्यमां कोई विशिष्ट प्रसंगर्नु वर्णन करवु होय, कोई विशिष्ट व्यक्तिर्नु नाचें चरित्र मूकवु होय के रसपरिवर्तन करवू होय त्यारे अपभ्रंश भाषा प्रयोजवानी एक रूढि दशमी शताब्दी पछीना जैन लेखकोमा जणाई आवे छे. धनेश्वरसूरिनु सुरसुदरिचरित (रचना ई. स. १०३८), वर्धमानसूरि-कृत आदिनाथचरित अने मनोरमाकथा रचना ई. स. १०८४), देवचंद्रसूरि-रचित मूलशुद्धिप्रकरण-टोका(ई. स. १०८९)अने शांतिनाथचरित (ई. स. ११०४), आम्रदेवसूरिकृत आख्यानकमणिकोश-वृत्ति (ई. स. ११३४, सोमप्रभसूरिकृत कुमारपालप्रतिबोध (ई. स. ११८४) अने सुमतिनाथचरित वगेरे अनेक प्राकृत कृतओमा अपभ्रंशना छूटक अंशो छे.
आमां देवचंद्रसूरिरचित मूलशुद्धिप्रकरण वृत्ति (ई. स. १०८९) मां सर्व प्रथम ज एक संधिकाव्य मळे छे. सुलसाख्यान के सुलसाचरित नामक आ काव्य १७ कडवकर्नु बनेलुं छे. मळ ग्रंथथी अलग एकला आ संधिनी प्रतिओ पण मळे छे. तेथी ए प्रसिद्ध पण हशे एम मानी शकाय छे. कर्ताए तेने 'संघि' तरीके पण ओळखावेल छे. आम अत्यार सधी प्राप्त थतां संधिकाव्योमा आ आद्य छे. आ पछी आम्रदेवसूरि-विरचित आख्यानकमणि-कोशवत्ति १. 'संध्यादौ कडवकान्ते च ध्रुवं स्यादिति ध्रुवा ध्रुवकं घत्ता वा ॥ कडवा-पमूहात्मकः सन्धिस्त
स्यादौ । चतभिः पद्धडिकाद्यश्छन्दोभिः कड़वकम् । तस्पान्ते ध्रुव' निश्चित स्यादिति ध्रवा
ध्रुवक घत्ता चेति संज्ञान्तरम् ॥' -छन्दोऽनुशासन (सटीक) ६.१ २. स्वयंभूकृत पउमचरिय, पुष्पदन्तकृत महापुराण,जसहरचरियाणायकुमारचरिय, साधारण-कत
विलासवई-कहा इत्यादि ग्रंथो जोतां आ वात स्पष्ट थाय छे. ३. काव्यनो अंत आम छे.
एह संधि पुरिसत्थ-पसत्थिय देवचंदसृरीहिं समस्थिय । इय बहुगुणभूसिउ, जिणसुपसंसिउ, सुलसचरिउ धम्मत्थियहं । निसुणंत-पदंतह, भत्तिपसत्तह, देउ मोक्खु मोक्ख त्थयहं ।।
सुलसाख्यान, मूलशुद्विप्रकरणवृत्ति, पृ. ५६. (सपा. अ. मो. भोजक, अमदावाद १९७१)
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