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________________ ३. जे०-यह प्रति श्री जेठीबाई जैन ज्ञानशाला, बीकानेर के संग्रह की है। प्रति का माप २६४१०.५ से. मी. है। पत्र संख्या २६, पंक्तिसंख्या १७ एवं अक्षर ४८ हैं। प्रान्त पुष्पिका न होते हुये भी टीका रचनाकाल सं१६५४ के लगभग ही लिखित एवं स्वयं श्रीवल्लभद्वारा परिमार्जित शुद्धतम प्रति प्रतीत होती है। - प्रा. और जे. संज्ञक प्रतियों में ङ और ड, तथा ऋ और ऋके अक्षर-न्यास में साम्य होने से अन्तर प्रतीत नहीं होता । ____सम्पादन-शैली में मैंने प्रा० संज्ञक प्रति को आदर्श रूप में रखा है और जे. तथा ज. संज्ञक दोनों प्रतियों के पाठान्तर टिप्पणी में दिये हैं। प्रा० संज्ञक को मूल रूप में रखते हुये भी जो शब्द अथवा सम्बन्धित पाठ को अंश प्रा. प्रति में उपलब्ध न होने पर, जे. प्रति का अंश मूल पाठ में ही दे दिया है और टिप्पणी में उल्लेख कर दिया है कि यह शब्द या अंश प्रा० प्रति में उपलब्ध नहीं होता ।। टीकाकार ने प्रत्येक लोक की टीका न करते हुए प्रत्येक शब्द के पर्यायों को पृथक देकर उनकी टीका की है । टीका के साथ जो मूल का अंश है वह टीकाकार के द्वारा समर्थित पाठ है । अत एव मूल-पाउ के पाठान्तर मैंने चतुर्थ परिशिष्ट में प्रदान किये हैं। मूल-पाठ के पाठान्तरों के लिये मैंने तीन हस्त प्रतियों का उपयोग किया हैं, जिसकी विवरण इस प्रकार है: १. पु.--श्रीलालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर अहमदाबादस्थ मुनि श्री पुण्यविजयजी के संग्रह की प्रति है । क्रमाङ्क ५१५९ है । माप २६४१०.५ से. मी. हैं। पत्र ३, पंक्ति १४ अक्षर ४९ हैं । लेखनकाल अनुमानतः १६ वीं शती का अन्तिम चरण या १७ वी का प्रथम चरण है । २. अ.-राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के संग्रह की है । ग्रन्थाङ्क ५९५० है । माप २५.५४१०.८ से. मी. है । पत्र ३. पंक्तिं १७ और अक्षर ४७ है । लेखनप्रशस्ति निम्नाङ्कित है: ___ “लिखितो वाचनाचार्यतिलककुशलगणिभिः स्वसंविदे ॥ श्री ॥ संवद्वाणयुगरसचन्द्रतमे वर्षे ॥” [ १६२५ ] ३. आ.-यह प्रति भी राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर के संग्रह की है । ग्रन्थाङ्क ८४४३ (२) है माप २६४१०.३ से. मी. है । पत्र संख्या ६ से १० है और पंक्ति १५ तथा अक्षर ४४ हैं । लेखनकाल अनुमानतः १८वीं शताब्दी है। वस्तुतः मल की तीनों ही प्रतियां शुद्धतम नहीं कही जा सकती। अतः अनुस्वारादि के पाठभेद न देकर अन्य पाठभेद ही दिये हैं । प्रथम परिशिष्ट में शब्दानुक्रमणिका दी है । इसमें शब्द के आगे टी. शब्दाकिंत शब्द टीका में प्रयुक्त नवीन शब्दों के सूचक है । द्वितीय परिशिष्ट में टीका में उद्धृत ग्रन्थान्तरों के पद्यांश दिये हैं । तृतीय परिशिष्ट में टीकाकारोल्लिखित ग्रन्थ एवं ग्रन्थकारों के नाम प्रदान किये है । चतुर्थ परिशिष्ट में मूलपाठ के पाठान्तर हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002650
Book TitleHaimanamamalasiloncha
Original Sutra AuthorJindevsuri
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1974
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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