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________________ २. स्थूलभद्र एकत्रीसो यह ३१ पद्यात्मक भाषा कृति श्रीसाराभाई मणिलाल नवाब के संग्रह में सं. १६५८ में श्रीमहिमा सागरलिखित गुटके में प्राप्त हैं । २४ प्रस्तुत ग्रन्थ प्रस्तुत हैमनाममालाशिलोञ्छ- दीपिका (टीका) की रचना के सन्दर्भ में श्रीवल्लभोपाध्याय ने प्रशस्ति में लिखा है : "सुरत्राण अकबर प्रतिबोधक एवं अकबर से प्राप्त युगप्रधान पदधारक श्रीजिनचन्द्रसूरि के धर्मराज्य में तथा सम्राट् अकबर के समक्ष ही स्वकरकमलों से स्वपद पर स्थापित श्रीजिनसिंहसूरि के युवराज - धर्मसाम्राज्य में, वि. सं. १६५४ चैत्र कृष्णा सप्तमी को नागपुर ( नागोर) में मैंने इस व्याख्या की रचना पूर्ण की है अर्वाचीन विद्वान् द्वारा निर्मित इस व्याख्या को विद्वगण उपेक्षा की दृष्टि से न देखें, क्योंकि मैंने हैमव्याकरण, हैमोणादि आदि व्याकरण ग्रन्थ और नामकोषों को देखकर, गहन विमर्ष कर, पूज्यों का आशीर्वाद प्राप्त कर इस व्याख्या की रचना की है । " । संवतोल्लेखवाली रचनाओंमें श्रीवल्लभ की यह दूसरी रचना है । इस व्याख्या में टीकाकार श्रीवल्लभोपाध्याय का व्याकरण और कोष साहित्य पर एकाधिपत्य, विशाल एवं गहन अध्ययन, प्रौढपाण्डित्य एवं वैचारिकी गरिमा का दर्शन स्थान-स्थान पर प्राप्त होता है । इस व्याख्या की विशेषतायें निम्नाङ्कित हैं: १. प्रत्येक शब्द की व्युत्पत्ति धातुपाठ और व्याकरण - सूत्रों द्वारा प्रदान की है । २. सिद्धहेमशब्दानुशासन, इसीका उणादि और धातुपाठ का समस्त स्थलों पर उपयोग किया है और कतिपय स्थलों पर पाणिनीये चान्द्रे और इन्द्रादि व्याकरणों का भी प्रयोग किया है । शब्द - साधन में मदान्तर होने पर अन्य आचार्यों के विचारों को भी ग्रहण किया है । ३. लिङ्ग - निर्वचन ओर शब्द-प्रयोग की उपयोगिता को ध्यान में रखकर, अनेक नामकोष, निघण्टु, आयुर्वेद सूदशास्त्र, धर्मशास्त्र एवं व्याकरण आदि के ४५ ग्रन्थ तथा ग्रन्थकारों के अभिमत उद्धृत कर अपने मन्तव्य को पुष्ट किया है, इससे इस व्याख्या की प्राञ्जलता दीप्तिमान् हो उठी है । ( ग्रन्थ एवं ग्रन्थकारों के नाम परिशिष्ट में द्रष्टव्य हैं) ४. उद्धृत ग्रन्थों में विक्रमादित्यकोष ( पृष्ट - ३ ). इन्द्र (पृष्ठ - ६३) एवं चन्द्र (पृ.-६३) प्रणीत कोषो के उद्धरण मिलते हैं । ये तीनों कोष सम्भवतः आज प्राप्त नहीं हैं । ५. मूलगत शब्दों की व्याख्या के साथ ही आचार्य हेमचन्द्रप्रणीत अभिधानचिन्तामणिनाममाला और शेष संग्रहनाममाला में आगत शाब्दिक पर्यायों को छोड़कर, १७ वीं शती के प्रचलित शब्दों के सहस्राधिक नवीन पर्याय दिये हैं । इन नवीन शब्द-पर्यायों में अनेकों ऐसे शब्द हैं जिनका साहित्य में प्रयोग कदाचित् ही देखने में आता है । १ देखें पृ. २२, २९, ५३, ७१ २. देखें, पृ. ६४ ३. देखें, पृ. ३८ ४. देखें, पृ. ४६, ५२, ५४, Jain Education International ६० आदि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002650
Book TitleHaimanamamalasiloncha
Original Sutra AuthorJindevsuri
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1974
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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