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________________ १६६९ में रचित अजितनाथ स्तुति टीका में स्वयं के लिये वाचक का उल्लेख न करके केवल 'वादिश्रीश्रीवल्लभः' एवं 'वादिश्रीवल्लभगणि' का ही प्रयोग किया है । अतः यह निश्चित है कि सं १६५४ के आसपास इनको वाचनाचार्य एवं गणिपद प्राप्त हो चुका था । उपरोक्त कृतियों के अतिरिक्त संवतोल्लेख वाली एवं बिना संवतोल्लेखवाली प्राप्त समग्र रचनाओं में श्रीवल्लभ ने स्वयं के लिये गणि के साथ वाचक या वाचनाचार्य पद का सर्वत्र उपयोग किया है। देखिये : १. मातृका श्लोकमाला (र. सं. १६५५) 'वाचकश्रीवल्लभाहेन' प्र. प. ३ २. हैमलिङ्गानुशासन दुर्गपदप्रबोध टोका (१६६१) श्रीश्रीवल्लभवा चकैः' प्र. प. १० ३. अभिधानचिन्तामणिनाममाला टीका (१६६७) वाचनाचार्यो वादिश्रीवल्लभो' प्र. प. ११ 'वाचनाचार्यश्रीवल्लभगणि' प्रान्तपु. ४. निघण्टुशेष टीका (१६६७ से पूर्व) 'वाचनाचार्यश्रीश्रीवल्लभगणि' प्रान्त पु. ५ अजितजिनस्तुतिटीका (१६६९) 'वादि श्रीश्रीवल्लभः' मं. प. १ ६. विद्वत्प्रबोधकाव्य 'वाचनाचार्यधुर्यश्रीश्रीवल्लभगणीश्वरैः' प्र. प. १. ७. 'केशाः पद्यव्याख्या 'श्रीश्रीवल्लभवाचकः' मं. १. वाचनाचार्य श्रीवल्लभगणिभिः' पुष्पिका. ८. संघपतिरूपजी-वंशप्रशस्ति (१६७५ के आसपास) 'श्रीश्रीवल्लभवाचकः' मं. ५ उपाध्याय पद का उल्लेख हमें केवल दो ग्रन्थों में प्राप्त होता है :-- १. चतुर्दशस्वर स्थापन वादस्थल एवं २. विजयदेवमाहात्म्य । वादस्थल की रचना जिनराजसूरि के शासनकाल में होने से स्पष्ट है कि सं. १६७४ के पश्चात् की यह कति है और विजयदेवमाहात्म्य का रचनाकाल १६८७ के पश्चात् का है । दोनों के उद्धरण निम्नांकित है :-- 'श्रीवल्लभः पाठक उत्सवाय' मं. ३, श्रीवल्लभ उपाध्यायः' प्र. प. ३. चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थल 'श्रीवल्लभ उपाध्यायः मं. ४, 'श्रीवल्लभः पाठक' सर्ग १९. प. २०३. 'श्रीवल्लभोपाध्यायविरचिते' प्रान्तपुष्पिकामें, विजयदेवमाहात्म्य अतः यह निश्चित है कि श्रीवल्लभ को सं. १६७४ के पश्चात् श्रीजिनराजसूरि ने उपा ध्याय पद प्रदान किया था । वादी श्रीवल्लभ ने कई स्थलों पर अपने नाम के साथ वादी विशेषण का प्रयोग भी गौरव के साथ किया है । इसका सर्व प्रथम उल्लेख सं. १६६७ में रचित अभिधानचिन्तामणिनामा माला टीका की प्रशस्ति पद्य ११ में 'वाचनाचार्यो वादिश्रीवल्लभोऽहमत प्राप्त होता है। दसरा उल्लेख सं. १६६९ में रचित अजितनाथ स्तुति टीका के मंगलाचरण में 'श्रीश्रीवल्लभ वादिभिः' और प्रान्तपुषिका में 'वादिश्रीवल्लभगणिविरचिता' मिलता है । सं. १६६७ में या इसके पूर्व कहां, किसके साथ और किस विषय पर इनका विवाद-शास्त्रार्थ हुआ? कोई संकेत नहीं मिलता है ।। सं. १६६९ में रचित अजितनाथस्तुति टीका में लिखा है कि-- किसी विद्वान के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002650
Book TitleHaimanamamalasiloncha
Original Sutra AuthorJindevsuri
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1974
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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