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के लिये विशेषकर व्याकरण एवं कोष पर, विशेष अध्ययन और योग्यता की अपेक्षा है। अतः प्रौढ एवं पाण्डित्यपूर्ण टीका निर्माण के लिये दीक्षा के पश्चाद् १५-२० वर्ष का समय तो अवश्य ही अपेक्षित है। इस लिये यह अनुमान युक्तिसंगत ही होगा कि यु. जिनचन्द्रसूरिने सं. १६३० और १६४० के मध्य में आपको दीक्षा प्रदान कर 'श्रीवल्लभ' नाम प्रदान किया हो।
उपाध्यायपद श्रीवल्लभ को गणिपद, वाचनाचार्य या वाचकपद और उपाध्यायपद किन किन संवतों में प्राप्त हुये, इसका कुछ भी पता नहीं है । इनके प्राप्त साहित्य में 'चतुर्दशगुणस्थानस्वाध्याय' गाथा २३ भाषा की संभवतः प्रथम रचना है । इसमें स्वयं के लिये 'श्रीवल्लभ मुनिवर भणी' मुनि शब्द का प्रयोग किया है । इस रचना में संवतोल्लेख नहीं है । अतः कौन से संवत् तक ये मुनिपद पर रहे, निश्चय नहीं किया जा सकता।
श्री ज्ञानविमलोपाध्याय ने सं. १६५४ आषाढ शुक्ला द्वितीया को रचित शब्दप्रभेद टीका में 'विद्वच्छ्रीवल्लभावस्य युक्तायुक्तविवेचिनः (२०), श्रीवल्लभ को विद्वान् और युक्तायुक्तविवेचक अवश्य कहा है किन्तु श्रीवल्लभ के साथ किसी पद का उल्लेख नहीं किया है।
श्रीवल्लभ की संवतोल्लेखवाली प्रथम प्रौढ रचना शेषसंग्रहनाममाला टीका है । इस टीका की पूर्णाहति ज्ञानविमलीय शब्दप्रभेद की रचना के ठीक २१ दिन बाद अर्थात् १६५४ श्रावण कृष्णा अष्टमी को हुई है । इसकी रचना-प्रशस्ति में 'गुरूणामन्तिषदाणुना श्रीवल्लभेन (१८)' लिखा है। ऐसे ही इसी वर्ष की इनकी दूसरी प्रौढ रचना हैमनाममालाशिलोञ्छ टीका है। इसकी रचना तिथि सं. १६५४ चैत्र कृष्णा सप्तमी है । इसमें भी 'श्रीज्ञानविमलपा दाम्भोजचञ्चरीकेण श्रीवल्लभेन, (१९) लिखा है । अर्थात् नाम के साथ किसी पद का उल्लेख नहीं है। किन्त दोनों ग्रन्थों की प्रशस्तियों में पदोल्लेख न होते हये भी. दोनों ग्रन्थों में प्रत्येक काण्ड की प्रान्तपुष्पिकाओं में 'वाचनाचार्य-श्रीवल्लभगणिविरचितायाम्' वाचनाचार्य एवं गणिपद का उल्लेख प्राप्त होता है । सं.१६५५ की लिखित एवं श्रीवल्लभ द्वारा संशोधित हैमनाममाला शिलोञ्छ की प्रति भी प्राप्त है, इसकी प्रान्तपुष्पिका में वाचनाचार्य एवं गणिपद का उल्लेख है। अतः यह मानना असंगत न होगा कि सं. १६५४ में ही या इसके १-२ वर्षे पूर्व ही इनको वाचनाचार्य एवं गणिपद प्राप्त हो गया था ।
सं. १६५५ में रचित ओकेश-उपकेशपदद्वयदशार्थी में 'पण्डित श्रीवल्लभगणि' उल्लेख है। इसी प्रकार बिना संवतोल्लेखवाली दो और रचनाएँ हैं, जिनमें 'खचरानन पश्य सखे खचर' पद्य की व्याख्या में 'विद्वछ्रीवल्लभाह्वो, पण्डित श्रीवल्लभगणि' तथा अत्यन्त प्रौढरचना सहनदलकमलबद्ध अरजिनस्तव की स्वोपज्ञ टीका में 'श्रीवल्लभेन गणिना' (४) उल्लेख मिलता है। अर्थात इन तीन कृतियों में पण्डित विद्वान् और गणि का उल्लेख तो प्राप्त है किन्तु वाचनाचार्य या वाचक का उल्लेख नहीं है।
अतः यहां यह प्रश्न स्वाभाविक है कि सं. १६५४ की रचनाओं में वाचनाचार्य का उल्लेख होने पर भी सं. १६५५ की रचना में केवल गणि का उल्लेख ही क्यों कर लेखक ने किया ? मेरी समझ में तो वाचनाचार्य होने पर भी लेखक ने स्वभाविक प्रवाह में स्वयं को गणि लिखा है। क्योंकि अनेक रचनाओं में वाचनाचार्य का उल्लेख करते हये भी सं.
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