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शास्त्रवार्तासमुच्चय
हैं, सदा सुखमग्न रहते हैं ।
टिप्पणी-जैन परंपरा मुक्त आत्माओं के निवासस्थान के सम्बन्ध में कल्पना करती है कि वह नरकलोक, पृथ्वीलोक तथा स्वर्गलोक इन तीनों लोकों के उपर वाले भाग में अवस्थित है ।
एता वार्ता उपश्रुत्य भावयन् बुद्धिमान्नरः ।
इहोपन्यस्तशास्त्राणां भावार्थमधिगच्छति ॥६९८॥
इन चर्चाओं को सुनकर तथा उन पर विचार करके एक बुद्धिमान् व्यक्ति उन सब शास्त्रों के अभिप्राय को समझ सकेगा जिनका यहाँ वर्णन हुआ है ।
शतानि सप्त श्लोकानामनुष्टप्छन्दसां कृतम् ।
आचार्यहरिभद्रेण शास्त्रवार्तासमुच्चयम् ॥६९९॥
आचार्य हरिभद्र ने 'शास्त्रवार्तासमुच्चय नाम वाले ग्रंथ को अनुष्टुप् नाम वाले ७०० श्लोकों में लिखा ।।
कृत्वा प्रकरणमेतद् यदवाप्तं किञ्चिदिह मया कुशलम् । भवविरहबीजमनघं लभतां भव्यो जनस्तेन ॥७००॥
इस प्रकरणात्मक ग्रंथ को लिखकर मैंने जो भी पुण्य कमाया हो वह भव्य (अर्थात् मोक्षप्राप्ति के पात्र) व्यक्तियों को निर्दोष मोक्षबीज प्राप्त कराए ऐसी मेरी कामना है।
टिप्पणी-इस कारिका को शास्त्रवार्तासमुच्चय की अन्तिम कारिका होना चाहिए क्योंकि हरिभद्र के प्रत्येक ग्रंथ के अन्तिम भाग में पाया जाने वाला विरह शब्द इस बात का सूचन करता है कि यह ग्रंथ यहाँ समाप्त हो गया । इसका अर्थ यह हओं कि शास्त्रवार्तासमुच्चय की मुद्रित प्रतियों में पाया जाने वाला अगला पद्य हरिभद्रकृत है इस बात की संभावना अत्यन्त कम है । फिर उसका हिन्दी अनुवाद आगे दिया जा रहा है ।
यं बुद्धं बोधयन्तः शिखिजलमरुतस्तुष्टुवुर्लोकवृत्त्यै ज्ञानं यत्रोदपादि प्रतिहतभुवनालोकवन्ध्यत्वहेतु' ।
१. क तथा ख दोनों का पाठ : ‘हेतुः ।
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