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________________ ग्यारहवाँ स्तबक २२१ जैसा कि प्राचीन चिन्तकों का कहना है : टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका में शास्त्रवार्तासमुच्चय की अन्तिम चर्चा का प्रारम्भ होता है और इसका विषय है मोक्ष का स्वरूपप्रतिपादन । दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्करः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्करः ॥६९३॥ __ "जिस प्रकार बीज के सर्वथा जल जाने पर उससे अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती उसी प्रकार 'कर्म' रूपी बीज के सर्वथा जल जाने पर संसार रूपी अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती । जन्माभावे जरामृत्योरभावो हेत्वभावतः । तदभावे च निःशेषदुःखाभावः सदैव हि ॥६९४॥ जन्म के न होने पर बुढ़ापा तथा मृत्यु भी नहीं होती और वह इसलिए कि अब उनका कारण ही उपस्थित नहीं; और उनके (अर्थात् बुढ़ापा तथा मृत्यु के) अभाव में सब दुःखों का सर्वथा अभाव सदैव बना रहता है । परमानन्दभावश्च तदभावे हि शाश्वतः । व्याबाधाभावसंसिद्धः सिद्धानां सुखमिष्यते ॥६९५॥ दुःखों के सर्वथा अभाव की स्थिति में वह परम आनन्द जो सब प्रकार की व्याकुलताओं से शून्य है सदैव बना रहता है और उसे ही मुक्त व्यक्तियों का सुख कहा जाता है । सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्ताः सर्वाबाधाविवर्जिताः । सर्वसंसिद्धसत्कार्याः सुखं तेषां किमुच्यते ॥६९६॥ मुक्त व्यक्ति सब प्रकार के द्वन्द्वों से मुक्त होते हैं, सब प्रकार की व्याकुलताओं से मुक्त होते हैं तथा वे सब शुभ कार्यों को कर चुके होते हैं, तब उनको मिलने वाले सुख का क्या कहना ? अमूर्ताः सर्वभावज्ञास्त्रैलोक्योपरिवर्तिनः । क्षीणसङ्गा महात्मानस्ते सदा सुखमासते ॥६९७॥ ये महात्मा व्यक्ति (अर्थात् मुक्त व्यक्ति) अमूर्त (=रूपशून्य) होते हैं, तीन लोकों के ऊपर निवास करने वाले होते हैं, सब कामनाओं से मुक्त होते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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