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ग्यारहवाँ स्तबक
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एक शब्द की विशेषता (अर्थात् यह बात कि यह शब्द सत्य है या मिथ्या) हम इस शब्द के स्वरूप का विश्लेषण आदि करके जान सकते हैंउसी प्रकार जैसे कि एक प्रमाणभूत ज्ञान की प्रमाणता तथा एक अप्रमाणभूत ज्ञान की अप्रमाणता हम इन ज्ञानों के स्वरूप का विश्लेषण आदि करके जानते हैं; हमारी यह मान्यता सच है क्योंकि वह लोकानुभवसिद्ध है ।
समयापेक्षणं चेह तत्क्षयोपशमं विना ।
तत्कर्तृत्वेन सफलं योगिनां तु न विद्यते ॥६६३॥
यह शब्द इस अर्थविशेष का द्योतक है इस प्रकार का ज्ञान एक व्यक्ति को कराने की आवश्यकता उस समय पड़ती है जब उक्त ज्ञान के आवरणभूत कर्मों का क्षयोपशम इस व्यक्ति ने न किया हो, क्योंकि उक्त ज्ञान इस प्रकार के क्षयोपशम को जन्म देकर सार्थक हो जाया करता है; जहाँ तक योगियों का प्रश्न है उन्हें उक्त ज्ञान की आवश्यकता नहीं पड़ती (क्योंकि उक्त ज्ञान के आवरणभूत कर्मों का क्षयोपशम योगी लोग कर चुके होते हैं) ।
टिप्पणी-हरिभद्र की समझ है कि एक शब्द किस अर्थ का द्योतक है इस बात का ज्ञान एक व्यक्ति को इसलिए नहीं हो पाता है कि उस व्यक्ति के इस ज्ञान पर 'ज्ञानावरण' नामवाले 'कर्म' का परदा पड़ा हुआ है । ऐसी दशा में यह व्यक्ति इस ज्ञान की प्राप्ति या तो तब करेगा जब कोई दूसरा व्यक्ति उसे बतलाए कि उक्त शब्द अमुक अर्थ का द्योतक है (और इस प्रकार उक्त ज्ञानावरण कर्म का वेग शान्त हो) या तब जब वह योगप्रक्रिया द्वारा उक्त ज्ञानावरण कर्म का वेग स्वयं शान्त कर ले । 'क्षयोपशम' जैन कर्मशास्त्र का एक पारिभाषिक शब्द है, यहाँ हमारे लिए इतना ही जानना आवश्यक है कि एक कर्म का क्षयोपशम तब हुआ माना जाता है जब वह न तो अपने पूरे वेग में हो न पूरी तरह क्षीण (नष्ट) हो गया हो । 'ज्ञानावरण' कर्मों के आठ प्राथमिक भेदों में से एक है और उसे ज्ञानाभाव के लिए उत्तरदायी माना गया है ।
सर्ववाचकभावत्वाच्छब्दानां चित्रशक्तितः । वाच्यस्य च तथाऽन्यत्र नागोऽस्य समयेऽपि हि ॥६६४॥
क्योंकि सब शब्द सभी अर्थों के द्योतक हुआ करते हैं और क्योंकि एक अर्थ (शब्द का अर्थभूत वस्तु) अनेक शक्तियों से सम्पन्न हुआ करता हैं यह मानने में भी कोई दोष नहीं । एक शब्द एक अर्थविशेष के अतिरिक्त अन्य
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