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शास्त्रवार्तासमुच्चय वन्ध्येतरादिको भेदो रामादीनां यथैव हि ।
मृषासत्यादिशब्दानां तद्वत् तद्धेतुभेदतः ॥६५९॥
जिस प्रकार स्त्रियों आदि में वंध्या-अवंध्या आदि का भेद कारणभेद से हआ करता है उसी प्रकार शब्दों (अर्थात् वाक्यों) में सत्य मिथ्या आदि का भेद कारणभेद से हुआ करता है ।
टिप्पणी प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र क्षणिकवादी के इस तर्क का खण्डन कर रहे हैं कि क्योंकि एक वाक्य सच भी हो सकता है और झूठ भी, इसलिए किसी वाक्य का उस वस्तु स्थिति से कोई सम्बन्ध नहीं जिसका इस वाक्य में वर्णन है।
परमार्थंकतानत्वेऽप्यन्यदोषोपवर्णनम् । प्रत्याख्यातं हि शब्दानामिति सम्यग् विचिन्त्यताम् ॥६६०॥
इस प्रकार एक शब्द का अपने अर्थ से एक वास्तविक ही अर्थ मानते हुए भी हम प्रस्तुत वादी द्वारा ऊपर उठाई गई आपत्तियों का उत्तर दे पाते हैं । इस परिस्थिति पर (मध्यस्थ श्रोताओं को) ध्यानपूर्वक विचार करना चाहिए ।
अन्यदोषो यदन्यस्य युक्त्या युक्तो न जातुचित् । वक्त्यवर्णं न बुद्धानां भिक्ष्वादिः शबरादिवत् ॥६६१॥
एक वस्तु के दोष को किसी दूसरी वस्तु पर थोपना कभी युक्तिसंगत नहीं । उदाहरण के लिए, भिक्षु आदि बुद्धों की निन्दा नहीं किया करते यद्यपि शबर आदि किया करते हैं (इसी प्रकार एक सत्य वाक्य वस्तुस्थिति का यथार्थ वर्णन करता है जबकि एक असत्य वाक्य वैसा नहीं करता) ।
टिप्पणी-यहाँ यशोविजयजी 'वक्त्यवर्णं न बुद्धानां भिक्ष्वादि' के स्थान पर 'व्यक्तावर्णं न बुद्धानां भिक्ष्वादिः' यह पाठ स्वीकार करते हैं । उनके पाठानुसार प्रस्तुत दृष्टान्त का अर्थ यह हुआ कि 'भिक्षु' आदि शब्द बुद्धों का । स्वरूपवर्णन यथार्थभाव से करते हैं जबकि 'शबर' आदि शब्द वैसा नहीं करते ।
ज्ञायते तद्विशेषस्तु प्रमाणेतरयोरिव । स्वरूपालोचनादिभ्यस्तथा दर्शनतो भुवि ॥६६२॥
१. ख का पाठ : युक्तियुक्तो । २. क का पाठ : व्यक्तवर्णं ।
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