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दसवाँ स्तबक
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इसके उत्तर में हमारा कहना है कि बुद्धिमान् लोग इस शास्त्र को प्रामाणिक नहीं मानते जिसमें कही गई कोई एक बात सच पाई जाए अपितु उसे जिसमें कही गई सब बातें सच पाई जाएँ ।
आत्मा नामी पृथक् कर्म तत्संयोगाद् भवोऽन्यथा । । मुक्तिर्हिसादयो मुख्यास्तन्निवृत्तिः ससाधना ॥६४०॥ अतीन्द्रियार्थसंवादो विशुद्धो भावनाविधिः । यत्रेदं युज्यते सर्वं योगिव्यक्तं स आगमः ॥६४१॥
आत्मा एक रूपान्तरणशील पदार्थ है, कर्म आत्मा से पृथक् एक पदार्थ है, आत्मा तथा कर्म के परस्पर संयोग से संसार (=पुनर्जन्म) होता है जबकि उनके परस्पर वियोग से मोक्ष, हिंसा आदि सचमुच हुआ करती हैं, हिंसा आदि से छुटकारे का यह रूप है तथा ये उस छुटकारे के साधन, अतीन्द्रिय पदार्थों के सम्बन्ध में कही गई बातों का अनुभवसंगत सिद्ध होना, विशुद्ध आध्यात्मिक ऊहापोह-इतनी बातें जो शास्त्र युक्तिसंगत ठहरा सके उसे ही योगिप्रणीत (=सर्वज्ञप्रणीत) मानना चाहिए ।
टिप्पणी-कहने की आवश्यकता नहीं कि जैनपरंपरा इन सब बातों को स्वीकार करती है जबकि विभिन्न जैनेतर परपराएँ इनमें से इन उन बातों को अस्वीकार करती हैं ।
अधिकार्यपि चास्येह स्वयमज्ञोऽपि यः पुमान् ।
कथितज्ञः पुनर्धीमांस्तद्वैयर्थ्यमतोऽन्यथा ॥६४२॥
ऐसे शास्त्र का अधिकारी भी वह बुद्धिमान् व्यक्ति है जो उन उन विषयों के सम्बन्ध में स्वयं गैरजानकार है लेकिन जो बतलाए जाने पर उन विषयों को समझ लेता है; यदि ऐसा न हो तो इस शास्त्ररचना का कोई प्रयोजन ही नहीं।
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि यदि कोई भी व्यक्ति प्रस्तुत विषयों के सम्बन्ध में गैरजानकार ही नहीं अथवा यदि कोई भी व्यक्ति इन विषयों को समझाए जाने पर भी नहीं समझ सकता तो उनका प्रतिपादन किया जाना बेकार है।
परचित्तादिधर्माणां गत्युपायाभिधानतः । सर्वार्थविषयोऽप्येष इति तद्भावसंस्थितिः ॥६४३॥
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