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दसवाँ स्तबक
शास्त्रादतीन्द्रियगतेरर्थापत्त्याऽपि गम्यते ।
अन्यथा तत्र नाश्वासश्छद्मस्थस्योपजायते ॥ ५९६ ॥
शास्त्रों की सहायता से अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद अर्थापत्तिप्रमाण भी सर्वज्ञ का ज्ञान करा सकता है, क्योंकि तब हम कह सकेंगे कि ये शास्त्र यदि किसी सर्वज्ञ व्यक्ति की रचना नहीं तो लोकसाधारण को उन अतीन्द्रिय पदार्थों की सत्ता में विश्वास नहीं हो सकता जिनका वर्णन इन शास्त्रों में हुआ है ।
टिप्पणी- हरिभद्र का आशय यह है कि प्रस्तुत शास्त्रों में वर्णित अतीन्द्रिय पदार्थों की सत्ता में लोकसाधारण का विश्वास एक ऐसा तथ्य है जो इस वस्तुस्थिति के हुए बिना संभव नहीं कि ये शास्त्र सर्वज्ञप्रणीत हैं, जैसा कि अभी दिखाया जा चुका है, इसी प्रकार के स्थलों में अर्थापत्तिप्रमाण का उपयोग है ।
प्रमाणपञ्चकावृत्तिरेवं तत्र न युज्यते ।
तथाऽप्यभावप्रामाण्यमिति ध्यान्ध्यविजृम्भितम् ॥५९७ ॥
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इस प्रकार यह मानना अयुक्तिसंगत है कि सर्वज्ञ पाँच प्रमाणों में से किसी का विषय नहीं, और ऐसी दशा में सर्वज्ञ को अभावप्रमाण का विषय मानना प्रस्तुत वादी की धांधलीगर्दी, (ख के पाठानुसार : अज्ञान- विडंबना है । वेदाद धर्मादिसंस्थाऽपि हन्तातीन्द्रियदर्शिनम् ।
विहाय गम्यते सम्यक् कुत एतद् विचिन्त्यताम् ॥५९८॥
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फिर सोचना चाहिए कि वेद की सहायता से धर्म आदि का समुचित स्वरूपनिरूपण भी एक ऐसे प्रमाता के बिना कैसे संभव होगा जो अतीन्द्रिय पदार्थों को देख सकता है ।
टिप्पणी- हरिभद्र का आशय यह है कि वेद में वर्णित वे बातें जिनका विषय अतीन्द्रिय पदार्थ है सच है या झूठ इसका निर्णय वही व्यक्ति कर सकता है जो अतीन्द्रिय पदार्थों को स्वयं देख सकता हो ।
न वृद्धसम्प्रदायेन छिन्नमूलत्वयोगतः ।
न चार्वाग्दर्शिना तस्यातीन्द्रियार्थोऽवसीयते ॥ ५९९ ॥
१. ख का पाठ : स्वांध्य ।
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