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शास्त्रवार्तासमुच्चय
सकता है) ?
धर्मादयोऽपि चाध्यक्षाः ज्ञेयभावाद् घटादिवत् ।
कस्यचित् सर्व एवेति नानुमानं न विद्यते ॥५९३॥
फिर प्रस्तुतोपयोगी (अर्थात् सर्वज्ञ की सत्ता का साधक) निम्नलिखित अनुमान अपने स्थान पर उपस्थित है इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता : 'धर्म आदि सभी वस्तुएँ (अर्थात् जगत् की सभी अतीन्द्रिय वस्तुएँ) किसी व्यक्ति के प्रत्यक्ष का विषय होनी चाहिए, ज्ञेय होने के कारण, जैसे घड़ा आदि वस्तुएँ ।'
टिप्पणी-हरिभद्र के अनुमान का तात्त्विक भाग निम्नलिखित है : ..जो वस्तु ज्ञेय है वह किसी व्यक्ति के प्रत्यक्ष का विषय है; .. समूचा जगत् एक ज्ञेय वस्तु है;" .. समूचा जगत् किसी व्यक्ति के प्रत्यक्ष का विषय है ।
आगमादपि तत्सिद्धिर्यदसौ चोदनाफलम् । प्रामाण्यं च स्वतस्तस्य नित्यत्वं च श्रुतेरिव ॥५९४॥
शास्त्र से भी सर्वज्ञ की सिद्धि होती है क्योंकि सर्वज्ञता शास्त्रोक्त किन्हीं आदेशों के पालन का फल है; और ये शास्त्र स्वतः प्रमाण है तथा नित्यउसी प्रकार जैसे कि प्रस्तुतवादी के मतानुसार वेद स्वतः प्रमाण तथा नित्य हैं।
टिप्पणी-हरिभद्र अपने धर्मशास्त्रीय ग्रंथों को किसी अर्थ में नित्य तथा स्वतः प्रमाण मानने के लिए तैयार हैं-उसी प्रकार जैसे मीमांसक वेदों को स्वतः प्रमाण तथा नित्य मानता है; लेकिन वे मीमांसक के साथ यहाँ तक जाने को तैयार नहीं कि अपने धर्मशास्त्रीय ग्रंथों को अकर्तृक मान बैठें ।
हृद्गताशेषसंशीतिनिर्णयात् तद्ग्रहे पुनः ।
उपमाऽन्यग्रहे तत्र न चान्यत्रापि चान्यथा ॥५९५॥
जब हम अपने मन के तमाम संशयों का समाधान करके किसी एक व्यक्ति को सर्वज्ञ रूप से जान लेते हैं तब किसी दूसरे व्यक्ति को सर्वज्ञरूप से जानने में उपमानप्रमाण भी हमारे काम आ सकता है, और यदि उपमानप्रमाण यहाँ हमारे काम नहीं आएगा तो वह कहीं भी काम न आ सकेगा ।
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