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शास्त्रवार्तासमुच्चय
मोक्षोपाय-प्राप्ति-योग्य कर्म-परिपाक किसी प्राणी को तो प्राप्त हो और किसी को नहीं । प्रस्तुत कारिका में दो बार आए 'आदि' शब्द से इंगित उन सिद्धान्तों की ओर हैं जहाँ मोक्षोपायप्राप्ति की संभावना सिद्ध करने के लिए कर्म-परिपाक की कल्पना के स्थान पर किसी अन्य कल्पना का आश्रय लिया जाता है ।
तस्यैव चित्ररूपत्वात् तत्तथेति न युज्यते ।। उत्कृष्टा या' स्थितिस्तस्य यज्जाताऽनेकशः किल ॥५५५।।
(प्रस्तुत वादियों के मतानुसार) यह कहना भी उचित नहीं कि क्योंकि जीव परस्परभिन्न स्वभाव वाले हैं इसलिए एक प्राणीविशेष को अनुकूल कर्मपरिपाक की प्राप्ति एक समयविशेष पर होती है; क्योंकि एक प्राणी उत्कृष्ट कोटि के (ख के पाठानुसार : उत्कृष्ट अपकृष्ट आदि कोटि के) कर्मबंध की स्थिति को भी बार बार प्राप्त करता है । ,
टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका का अर्थ समझने के लिए जैनों के कर्मसिद्धान्त से सम्बन्धित दो एक बातें ध्यान में रखना आवश्यक है । जैन परंपरा मानती है कि कुछ आत्माएँ स्वभावतः ही मोक्ष पाने के योग्य हैं तथा कुछ स्वभावतः ही मोक्ष पाने के अयोग्य (इनमें से पहली को 'भव्य' तथा दूसरी को 'अभव्य' विशेषण दिया गया है); दूसरे, जब एक आत्मा का कर्मबंध अत्यंत क्षीण होता है तब वह एक ऐसी अवस्था प्राप्त कर लेती है जिसका पारिभाषिक नाम 'ग्रंथिभेद' ('गांठ खोलना') है और जिसे प्राप्त करने के बाद उक्त आत्मा नियमतः तथा पर्याप्त निकट भविष्य में मोक्ष प्राप्त करती है। साथ ही यह संभव है कि एक आत्मा का कर्मबन्ध इतना क्षीण तो हो जाए कि वह ग्रंथिभेद के द्वारा तक पहुँच जाए लेकिन इतना क्षीण नहीं कि वह ग्रंथिभेद कर सके; (वस्तुतः इस प्रकार ग्रंथिभेद के द्वार तक पहुँचना उन आत्माओं के लिए तक संभव होता है जो स्वभावतः ही मोक्ष पाने के अयोग्य है) । कहने की आवश्यकता नहीं कि कोई आत्मा यदि ग्रंथिभेद के द्वार तक पहुँच कर भी ग्रंथिभेद न कर सके तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसके कर्मबन्ध में फिर वृद्धि प्रारंभ हो गई । कर्मबन्ध की तीव्रतम स्थिति को उत्कृष्ट कर्मबन्ध तथा कर्मबन्ध की मृदुतम स्थितिको अपकृष्ट कर्मबन्ध की स्थिति कहा जाता है। प्रस्तुत वादी का कहना है कि जब कोई आत्मा कर्म-बन्ध की एक स्थितिविशेष को प्राप्त करने के
१. ख का पाठ : उत्कृष्टाद्या ।
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