SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५८ शास्त्रवार्तासमुच्चय में न रहने वाली और इस प्रकार नष्ट होने वाली वस्तु के संबन्ध में यह कहना कि यह अस्तित्वशीलरूप ही है लोकसम्मत नहीं। टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि उत्पत्ति-प्रक्रिया की वास्तविकता को स्वीकार किए बिना यह भी नहीं समझा जा सकता कि एक वस्तु स्थिति में आती कैसे है (भले ही वह क्षण भर के लिए स्थिति में क्यों न आए) दूसरी ओर, एक वस्तु की स्थिति को उसके नाश से अभिन्न मानना अन्तर्विरोधपूर्ण है, क्योंकि स्थिति का अर्थ है एक वस्तु का सत्ता में रहना जबकि नाश का अर्थ है एक वस्तु का सत्ता में रहने के पश्चात् सत्ता में न रहना । वासनाहेतुकं यच्च शोकादि परिकीर्तितम् । तदयुक्तं यतश्चित्रा सा न जात्वनिबन्धना ॥४९४॥ प्रस्तुत वादी ने जो यह कहा कि “एक ही वस्तु विभिन्न व्यक्तियों के मन में शोक आदि विभिन्न भावनाएँ उत्पन्न करती है इसका कारण इन व्यक्तियों के मन की वासनाएँ हैं (न कि इस वस्तु का अनेक स्वभावों वाली होना)' वह उचित नहीं, क्योंकि विभिन्न व्यक्तियों के मन में विभिन्न वासनाओं का उदय अकारण नहीं हो सकता । । 'सदाभावेतरापत्तेरेकभावाच्च वस्तुनः । तद्भावेऽतिप्रसंगादि नियमात् संप्रसज्यते ॥४९५॥ क्योंकि यदि एक व्यक्ति के मन में एक वासना अकारण उत्पन्न हो सकती है तो उसे या तो सदा उत्पन्न होना चाहिए या कभी नहीं । दूसरे, यदि माना जाए कि प्रत्येक वस्तु एक ही स्वभाव वाली है और फिर भी वह विभिन्न व्यक्तियों के मन में विभिन्न वासनाओं को जन्म दे सकती है तो निश्चय ही अवाञ्छनीय निष्कर्ष स्वीकार करने के लिए तथा ऐसी ही दूसरी कठिनाइयों का सामना करने के लिए हमें बाध्य होना पड़ेगा । ... न मानं मानमेवेति सर्वथाऽनिश्चयश्च यः । उक्तो न युज्यते सोऽपि यदेकान्तनिबन्धनः ॥४९६॥ फिर प्रस्तुत वादी ने जो यह कहा कि स्याद्वाद का सिद्धान्त मानने वाले १. क का पाठ : शोकादिपरि । २. ख का पाठ : सदा भावे । ३. ख का पाठ : "वेतरापत्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy