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शास्त्रवार्तासमुच्चय
उत्पादोऽभूतभवनं स्वहेत्वन्तरधर्मकम् ।
तथाप्रतीतियोगेन' विनाशस्तद्विपर्ययः ॥४८८॥
उत्पत्ति का अर्थ है अस्तित्व में न रही एक वस्तु का अस्तित्व में आना और यह 'हेतु का नाश (= उपादानकारण के एक रूपविशेष का नाश)' रूप हुआ करती है, यह इसलिए कि हमें इस प्रकार की प्रतीति होती है । विनाश उत्पत्ति का ठीक उलटा होता है (अर्थात् विनाश का अर्थ है अस्तित्व में आई हुई एक वस्तु का अस्तित्व में न रहना और यह 'उपादानकारण के एक रूपविशेष की उत्पत्ति' रूप हुआ करता है)।
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि किसी वस्तु के उत्पन्न होने का अर्थ है इस वस्तु के उपादानकारण द्वारा एक पुराना रूप छोड़कर इस वस्तु के रूप का धारण किया जाना जबकि किसी वस्तु के नष्ट होने का अर्थ है इस वस्तु के उपादानकारण द्वारा इस वस्तु का रूप छोड़कर एक नए रूप का धारण किया जाना; (यहाँ भी देखा जा सकता है कि उत्पत्ति नाश तथा स्थिरता को साथ लिए चलती है और नाश उत्पत्ति तथा स्थिरता को) ।
तथैतदुभयाधारस्वभावं ध्रौव्यमित्यपि ।
अन्यथा त्रितयाभाव एकदैकत्र किं न तत् ॥४८९॥
स्थिरता इन दोनों का (अर्थात् उत्पत्ति तथा विनाश का) आधाररूप हुआ करती है; यदि ऐसा न हो तो इन तीनों में से एक का भी पाया जाना संभव नहीं । तब फिर उत्पत्ति, विनाश तथा स्थिरता एक ही स्थान तथा समय में क्यों नहीं पाए जाएँ ?
एकत्रैवैकदैवैतदित्थं त्रयमपि स्थितम् । न्याय्यं भिन्ननिमित्तत्वात् तदभेदे न युज्यते ॥४९०॥
इस प्रकार एक ही स्थान तथा समय में इन तीनों का (अर्थात् उत्पत्ति, विनाश एवं स्थिरता का) पाया जाना युक्तिसंगत है और वह इसलिए कि इन तीन के निमित्त परस्परभिन्न हैं; यदि इनके ये निमित्त परस्पर भिन्न न होते तब ऐसा होना (अर्थात् तब उत्पत्ति, विनाश एवं स्थिरता का एक ही स्थान तथा समय में पाया जाना) युक्तिसंगत न होता।
१. क का पाठ : तथा प्रतीति ।
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