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________________ छठा स्तबक १३७ (४) उत्पन्न होने वाला कार्य न अस्तित्वशील है न नास्तित्वशील। दूसरे तर्क में निम्नलिखित चार विकल्पों पर विचार किया गया है : (१) उत्पन्न होने वाले कार्य का कारण अपना नाश करता है । (२) उत्पन्न होने वाले कार्य का कारण उक्त कार्य को जन्म देता है। (३) उत्पन्न होने वाले कार्य का कारण अपना नाश करता है तथा उक्त कार्य को जन्म देता हैं । (४) उत्पन्न होने वाले कार्य का कारण न अपना नाश करता है न उक्त कार्य को जन्म देता है । [स्पष्ट ही हरिभद्र का अपना मत यह नहीं कि कार्योत्पत्ति एक असंभव बात है, लेकिन वे यह दिखा रहे हैं कि जिस प्रकार के तर्कों की सहायता से क्षणिकवादी वस्तुओं के नाश को निर्हेतुक सिद्ध कर रहा है उस प्रकार के तर्कों की सहायता से तो वस्तुओं की उत्पत्ति को भी निर्हेतुक सिद्ध किया जा सकता है ।] न चाध्यक्षविरुद्धत्वं जनकत्वस्य मानतः । असिद्धेस्तत्र नीत्या तद्व्यवहारनिषेधतः ॥४३५॥ यह कहना भी उचित न होगा कि वस्तुओं की उत्पत्तिकारणता से इनकार करना प्रत्यक्षात्मक ज्ञान के साक्ष्य के विरुद्ध जाना है, क्योंकि उक्त उत्पत्तिकारणता प्रमाण द्वारा सिद्ध न होने के कारण उसे व्यवहार का (अर्थात् बौद्धिक चिन्तन अथवा शाब्दिक चर्चा का) विषय बनाने से इनकार करना युक्तिसंगत है । मानाभावे परेणापि व्यवहारो निषिध्यते । सज्ज्ञानशब्दविषयस्तद्वदत्रापि दृश्यताम् ॥४३६॥ आखिरकार प्रस्तुत वादी की भी यह मान्यता है ही कि जिस वस्तु की सत्ता प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं उसे अस्तित्वशील रूप से बौद्धिक अथवा शाब्दिक व्यवहार का विषय बनाने से इनकार किया जाना चाहिए, ठीक यही बात वस्तुओं की उत्पत्तिकारणता के संबन्ध में लागू होती है । (२) 'अर्थक्रियाकारित्व' से क्षणिकवाद की सिद्धि नहीं । अर्थक्रियासमर्थत्वं क्षणिके यच्च गीयते । उत्पत्त्यनन्तरं नाशाद् विज्ञेयं तदयुक्तिमत् ॥४३७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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