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छठा स्तबक
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रूप मनोदोष से दूषित व्यक्ति को हिंसक माना जाना चाहिए (जबकि मारा गया प्राणी इस प्रकार के मनोदोष से दूषित नहीं), लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि प्रस्तुतवादी के मतानुसार यही बात तो नहीं बनती ।
संक्लेशो यद् गुणोत्पादः स चाक्लिष्टान्न केवलात् ।
न चान्यसचिवस्यापि तस्यानतिशयात् ततः ॥४३०॥
क्योंकि एक मन में दोष उत्पन्न होने का अर्थ है इस मन में एक नए धर्म का उत्पन्न होना, लेकिन इस प्रकार का दोष एक अदूषित मन में स्वतः उत्पन्न नहीं हो सकता; और न ही इस मन में वह दोष किसी सहकारिकारण की सहायता से उत्पन्न हो सकता है क्योंकि (प्रस्तुत वादी के मतानुसार) यह सहकारिकारण भी तो (मुख्य कारण रूप) इस मन में कोई नवीनता नहीं ला सकता ।
टिप्पणी-हरिभद्र की प्रस्तुत विशेष आपत्ति का आधार एक वही सामान्य आपत्ति है जिसे वे निर्हेतुक विनाश संबंधी अपनी चर्चा में अभी उठाकर चुके हैं।
तं प्राप्य तत्स्वभावत्वात् ततः स इति चेन्ननु । नाशहेतुमवाप्यैवं नाशप्रक्षेऽपि न क्षतिः ॥४३१॥
कहा जा सकता है कि क्योंकि सहकारिकारण की उपस्थिति में एक मन का ऐसा स्वभाव बन जाता है कि उसमें दोषों का जन्म हो सके इस दोषजन्म का कारण सहकारिकारण है; लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि तब तो यह कहने में भी दोष नहीं कि क्योंकि नाशकारण की उपस्थिति में एक वस्तु का ऐसा स्वभाव ही बन जाता है कि उसका (अर्थात् उस वस्तु का) नाश हो सके इस नाश का कारण यह नाशकारण है ।।
अन्ये तु जन्यमाश्रित्य सत्स्वभावाद्यपेक्षया । एवमाहुरहेतुत्वं जनकस्यापि सर्वथा ॥४३२॥
प्रस्तुत वादी की ही तर्कसरणि का अनुसरण करते हुए कुछ दूसरे वादियों ने प्रश्न उठाया है कि एक उत्पन्न की जाती हुई वस्तु अस्तित्व स्वभाव वाली है अथवा नास्तित्वशील स्वभाव वाली आदि आदि, और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि एक वस्तु की उत्पत्ति का तथाकथित कारण इस वस्तु की उत्पत्ति का
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