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शास्त्रवार्तासमुच्चय
दूसरी ओर ज्ञान की स्वरूपव्यवस्था संभव है यह कहने का अर्थ है कि एक ऐसे ज्ञान की सत्ता निश्चय संभव है जो ज्ञान के स्वरूप को यथार्थ भाव से प्रकाशित करता है; ऐसी दशा में इस ज्ञान को (अर्थात् ज्ञान के स्वरूप विषयक ज्ञान को) अकर्मक कैसे माना जा सकेगा ?
व्यवस्थापकमस्यैवं भ्रान्तं चैतत्तु भावतः । तथेत्यभ्रान्तमत्रापि ननु मानं न विद्यते ॥३९८॥
कहा जा सकता है कि ज्ञान की स्वरूपव्यवस्था उक्त रूप से करने वाला कोई ज्ञान होता तो है लेकिन वह वस्तुतः भ्रान्त हुआ करता है; इस पर हमारा उत्तर है कि तब तो इस संबन्ध में (अर्थात् ज्ञान की स्वरूपव्यवस्था के संबन्ध में) कोई अभ्रान्त प्रमाण हमें प्राप्त नहीं रहा।।
भ्रान्ताच्चाभ्रान्तरूपा न युक्तियुक्ता व्यवस्थितिः । दृष्टा तैमिरिकादीनामक्षादाविति चेन्न तत् ॥३९९॥
और यह मानना युक्तिसंगत नहीं कोई भ्रान्त ज्ञान किसी वस्तु के संबन्ध में अभ्रान्त स्वरूपव्यवस्था कर सकता है। कहा जा सकता है कि तिमिर आदि नेत्र रोगों से पीड़ित व्यक्तियों के भ्रान्त ज्ञान इन व्यक्तियों के नेत्ररोग के संबन्ध में अभ्रान्त स्वरूपव्यवस्था कराया ही करते हैं, लेकिन इस पर हमारा उत्तर है :
टिप्पणी-प्रस्तुतवादी का आशय यह है कि तिमिर रोग से पीडित एक व्यक्ति के नेत्र-जन्य प्रत्यक्षों को भ्रान्त पाने पर हम जान लेते हैं कि यह व्यक्ति तिमिररोग से पीड़ित हैं, और इस प्रकार यहाँ उक्त भ्रान्त ज्ञान उक्त व्यक्ति के तिमिररोग के संबन्ध में अभ्रान्त ज्ञान करा पाते हैं।
नाक्षादिदोषविज्ञानं तदन्यभ्रान्तिवद्यतः ।
भ्रान्तं तस्य तथाभावे भ्रान्तस्याभ्रान्तता भवेत् ॥४००॥
नेत्ररोग से पीड़ित उक्त व्यक्तियों का नेत्रजन्य ज्ञान जिस प्रकार भ्रान्त होता है वैसे ही भ्रान्त वह ज्ञान नहीं जिसका विषय उक्त नेत्र-रोग है; क्योंकि इस नेत्ररोग विषयक ज्ञान को भ्रान्त मानने का अर्थ होगा उक्त नेत्रजन्य ज्ञान को (जो वस्तुतः भ्रान्त है) अभ्रान्त मानना ।
न च प्रकाशमानं तु लोके क्वचिदकर्मकम् । दीपादौ युज्यते न्यायादतश्चैतदपार्थकम् ॥४०१॥
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