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________________ पाँचवाँ स्तबक १२३ अपने आप से प्रकाशित होता है । जिस प्रकार 'वह बैठता है' 'वह सोता है' आदि प्रयोगों में क्रिया कर्म से शून्य है तथा कर्ता को हि उस उस क्रिया का करने वाला कहा जाता है वैसी ही बात ज्ञान के संबन्ध में भी है (अर्थात् प्रकाशनक्रियारूप ज्ञान भी कर्म से शून्य है तथा वह स्वयं ही प्रकाशनक्रिया का कर्ता है)" । टिप्पणी-हिन्दी में पूछा जा सकता है कि ज्ञान को 'चमकता है' इस अकर्मक क्रिया का कर्ता माना जाए या 'चमकाता है' इस सकर्मक क्रिया का। विज्ञानाद्वैतवादी का कहना है कि उनमें से पहला विकल्प स्वीकार किया जाना चाहिए, हरिभद्र कहेंगे कि दूसरा । उच्यते सांप्रतमदः स्वयमेव विचिन्त्यताम् । प्रमाणाभावतस्तत्र यद्येतदुपपद्यते ॥३९५॥ इसके उत्तर में हम चाहेंगे कि प्रस्तुतवादी स्वयं सोचे कि क्या उसका मत स्वीकार करने पर किसी भी प्रकार की तत्त्वव्यवस्था (अर्थात् किसी भी वस्तु को किसी भी रूप वाली कहना) समुचित रूप से संभव होगी; हमारी आपत्ति का आधार यह वस्तुस्थिति है कि किसी भी प्रकार की तत्त्वव्यवस्था के पक्ष में किसी भी प्रकार का प्रमाण उपस्थित करना प्रस्तुतवादी के लिए संभव नहीं । एवं न यत् तदात्मानमपि हन्त प्रकाशयेत् ।। अतस्तदित्थं नो युक्तमन्यथा न व्यवस्थितिः ॥३९६॥ क्योंकि तब तो (अर्थात् ज्ञान को अकर्मक प्रकाशनक्रिया भर मानने पर) मानना पड़ेगा कि ज्ञान अपने स्वरूप का भी प्रकाशन नहीं कर सकता, और ऐसी दशा में प्रस्तुत वादी का यह कहना उचित न होगा कि ज्ञान अमुक स्वरूप वाला है । और यदि ऐसा नहीं है (अर्थात् यदि प्रस्तुत वादी का यह कहना उचित है कि ज्ञान अकर्मक प्रकाशनक्रिया भर है) तो ज्ञान की स्वरूपव्यवस्था संभव नहीं । व्यवस्थितौ च तत्त्वस्य तथाभावप्रकाशकम् । ध्रुवं यतस्ततोऽकर्मकत्वमस्य कथं भवेत् ॥३९७॥ १. क का पाठ : उच्यतेऽसाम्प्रत । २. ख का प्रस्तावित पाठ : तौ तत्तत्त्वस्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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