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चौथा स्तबक
नहीं तो इन नेत्र आदि से जनित (बुद्धि आदि) कार्यों में भी परस्पर-भेद नहीं होना चाहिए ।
सामग्यपेक्षयाऽप्येवं सर्वथा नोपपद्यते ।
यद् हेतुहेतुमद्भावस्तदेषाऽप्युक्तिमात्रकम् ॥३२३॥ ..
इस प्रकार एक कार्य का कारण (किसी अकेली वस्तु को नहीं अपितु) किसी वस्तु समुदाय को मानने पर भी कार्य-कारणभाव की संगति (प्रस्तुत वादी के मतानुसार) कैसे ही नहीं बैठती; और ऐसी दशा में वस्तु-समुदाय सम्बन्धी यह बात भी एक खाली बात सिद्ध होती है।
(५) क्षणिकवाद में वास्य-वासकभाव की अनुपपत्ति
नानात्वाबाधानाच्चेह कुतः स्वकृतवेदनम् । सत्यप्यस्मिन् मिथोऽत्यन्तं तद्भेदादिति चिन्त्यताम् ॥३२४॥
और यदि कार्यकारणभाव को कैसे ही संभव मान लिया जाए तो भी क्योंकि प्रस्तुत वादी अपनी इस मान्यता को वापस नहीं ले रहा है कि जगत् की सभी वस्तुएँ एक दूसरे से सर्वथा पृथक् हैं हमें सोचना है कि उसके मतानुसार एक प्राणी द्वारा अपने किए काम का फल भोगा जाना कैसे संभव होगा, यह इसलिए कि प्रस्तुत वादी के मतानुसार काम करने वाला मन फल भोगने वाले मन से सर्वथा भिन्न है ।।
टिप्पणी प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र फिर एक नई चर्चा का सूत्रपात करते हैं । अपनी समझ के अनुसार वे यह दिखा चुके कि क्षणिकवादी की मान्यताएँ स्वीकार करने पर वस्तुओं के बीच कार्य-कारणभाव संभव नहीं होना चाहिए-न एक वस्तु का एक वस्तु के साथ न अनेक वस्तुओं का एक वस्तु के साथ । अब वे यह कहते हैं कि क्योंकि क्षणिक वादी की मान्यतानुसार एक कारण तथा उसका कार्य एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं उसे यह भी मानना चाहिए कि एक 'कर्म' का संचय करने वाला मन उस 'कर्म' का फल भोगने वाले मन से सर्वथा भिन्न है-जब कि यह एक बेतुकी बात है कि किसी अन्य के किये का फल कोई अन्य भोंगे।
वास्य-वासकभावाच्चेन्नैतत् तस्याप्यसंभवात् । असंभवः कथं न्वस्य विकल्पानुपपत्तितः ॥३२५॥
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