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इणि परि दसे प्रश्ने करी, हरि परख्यु ऋषिराय रे । अगनि तापि सोनु जस्यउ, अधिकइ वानि सोहाइ रे ॥इंद्र०॥१४७॥
ढाल । बंभण रूप तजी करी रे, इंद्ररूप धरी प्रणमइ रे ।। मधुर वचने करी संस्तवइ रे, आनंद धरतु मनमाहि रे ॥ सवि साधतां रे सदगुरू पुण्यइ पांमीयु रे ॥आंकणी ॥१४८॥ क्रोध अहो तिइ जीतलु रे, माण अहो ति विशि कीधु रे । माया तइं दूरि करी रे, लोभई चित्त न दीधु रे ॥स०॥१४९॥ अहो अज्जव तुझ अभिनवु रे, अहो मृदुता गुणवंती रे । अहो ते मुत्तो अणुत्तरा रे, अहो उत्तम तुझ खंतो रे ॥स०॥१५॥ ईहां उत्तम हुइ परभवइ रे, उत्तमतां ईहां रहिस्यउ रे । लोगुत्तम पदई [जई] रे, वहिली लीला लहिस्यु रे ॥स०॥१५॥ इम संस्तवना ऋषिराजनी रे, करतु उत्तम छंदइ रे । देई प्रदक्षिणा सुरवरू रे, वली वली लली लली वांदइ रे ॥स०॥१५२॥ चक्र अंकुस लख्यण धरु रे, चरणकमल तसु वंदो रे । आखंडल सूरमंडलइ रे, पुहुतु मनि आणंदि रे ॥स०॥१५३।।
वलय सरूप लही प्रतिबूधउ, पूरव भव श्रुत संभरी सूधउ । सासन सूर तसु आपइ वेष, ऋषि प्रमाद नवि करइ नमेष ॥१५॥ ए प्रत्येकबुधि नमोराज, सीध साखि लहइ संयमराज । काम क्रोध जसु नही य लगार, निरमम अप्रतिबंध विहार ॥१५५॥ ईम करकंडु द्रुमुह निग्गई पुणि, वृषभ थंभ सहकार नीर मुणि । ए प्रतेकबुद्ध समकालि, च्यार थया मल कसमल टालि ॥१५६॥ खितिप्रतिष्टपुरि चउमुह देउलि, च्यारइ मुनि पुहुता निजहेति कलि । भगति भणी ईक सुरपतिबिंब करइ चतुरमुख छडि बिलंब ॥१५७॥ चारित्र पाली महामुनीसुरा, श्रूतधर अनि संयम गुण करि प्रा । लहते केवल नाणपहाणं, पुहुता सिद्धिनयरि सुभ ठाणं ॥१५८॥ गगनि काय रस शशि (१६६०) वरसई, सधन धनेरापुर मांनि हरसइं । श्री ख[र]तरगछ अधिक विराजि, युगप्रधान जिनचंद्रसूरि राजइ ॥१५९॥
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