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दुरजय सुभट लाख दस जीपइ, संग्रामिक एक कोई जी । दुराचारी आतिमकुं जीपइ, ते प्रकृष्ट जय होई जी || इंद्र० || १३३॥ पंच इंद्री तेणि वसि कीधां, लोभ मांन वली क्रोध जी ।
माया मन तेणि जीत्यां, सूणि जिणि जीत्यउ आतम जोध जी ॥ इंद्र ० ॥ १३४ ॥
ढाल |
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यगनि करावो बहु परि, बंभण श्रमण जीमावि रे देइ भोगविदं जय करी, पछइ व्रत धरि भाविई रे । इंद्र ईस्युं ऋषिनइ कहइ -- ए आंकणी ॥ १३५ ॥
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हवि ऋषि बोलइ गोतणा, मासि मासि
दस लाख रे ।
कोई दीइ धन तेथी भली, संयमसिरी श्रुत साखि रे ॥ इंद्र ० ॥१३६॥ वली हरि प्रश्न करइ ईस्युं, घोराश्रम गृह छंडि रे ।
कोबाश्रम कां आदरइ, इहां पोसह व्रत मंडि रे ॥ इंद्र०॥१३७॥
कुस अग्रई आवइ जेतु, ते भुंजइ प्रतिमासि रे । सोलमी जिनधर्मनी कला, ईम ऋषिवचन सुणी हवइ, मणि मोक्तिक सोवन करी, कोस वधारि प्रभूत रे ।। इंद्र ० ॥ १३९ ॥ पछइ व्रत तुं आदरे, ऋषि बोलइ सुभ वाचि रे ।
नवि पांमइ तेह विमासि रे || इंद्र० ॥ १३८ ॥ बोलइ वर परहुते रे ।
सोवन रूप तणा घणा, भूधर हुइजइ कदाचि रे || इंद्र०॥१४०॥ तु पणि नर लोभी तणी, आशा नवि पूराइ रे ।
धन असंख सुरगिरी समू, आशा अनंत दहाइ रे || इंद्र ० ॥ १४१ ॥ पुहवि साली जव वली, सोवन पशु भरी कोई रे । एकइनइ जइ दीजीइ, तोष न पांवइ तोइ रे || इंद्र० ॥ १४२ ॥ एह अरथ सूणी सुरपती, बोलइ ऋषिनइ ईम रे ।
अनुपम भोग तजी करी, अछतां वांछइ केम रे || इंद्र ० ॥ १४३ ॥
हवि ऋषि बोलइ सुणी हरी, कांम शल विस जांणी रे । कांम आसीविष सम कह्या, कांम माहा दुख खांणी रे ॥ इंद्र० ॥ १४४ ॥
कांम वंछाइ जीवडा, अणभोगवतां कांम रे ।
दुरगति पातालई सही, इम पांमइ दुठांमि रे || इंद्र ० ॥ १४५॥ क्रोध लगी नरगि वसई, मांन अधमगति थोभ रे ।
मायाअइ सूगती हणs, ईह परभविइ करी लोभ रे || इंद्र ० ॥ १४६ ॥
१ इन्द्र
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