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इंद्र कहि ए अग्नि वायु, तिम मलिउं सरिखइ सरिखं । . मंदिर अंतेउर परिजलतां, हिव भगवन कां न निरखुरे ॥सा० ॥१२॥ एह सूणी ऋषि उत्तर आपइ, सुखि जीवीइ सूखि रहीइ । मिहिलां बलतीयइ अम्हारउ, काई न बलतु लहीइ रे ॥सा० ॥१२१॥ पुत्र कलत्र परिवार तजीनइ, अम्हे हुआ विइरागी । प्रीय अप्रीय को अम्ह न दीसइ, दुख पामइ ते रागी रे ॥सा० ॥१२२॥ वली ते इंद्र अस्युं मुखि भाखड़, गढ करावि ऋषिराया । गोपुर अट्टालग खाई सजि, पाखलि यंत्र उपाया रे ॥सा० ॥१२३।। हवइ ऋषिइं इन्द्र भणी ईम बोलइ, श्रद्धानगर नींपाई । सम संवेग पोलि तप संयम, आगलि करी वणाई रे ॥ सा० ॥१२४॥ चिहुं दीसि खिमा महागढ पूरु, हि गुप्ति यत्र खाई । अट्टाली सूपराक्रम धणुही, ईर्या पणछि संधाई रे ॥सा० ॥१२५॥ धृत केतन.. साचइ करी बंध्यउ, तप नाराचइ जोडो ॥ कर्म कंचूक भेदी शिव पावइ, साधू मोह दल मोडि रे ॥सा० ॥१२६॥ -
ढाल । वधमांन प्रासाद करावी, वलीभी करि चउसाल जी । पच्छइ तुं दख्या आदरजे, कांइ चूकइ चउसाल जी ॥ इंद्र ईसी परि ऋषिस्युं बोलइ । ए आंकणी ॥१२७॥ हवइ ऋषि इंद्र भणी ईम बोलइ, गमन अनिश्चि तासु जी । जे मारगि मंदिर नींपावइ, गांमांतर नगर निवासी जी ॥इंद्र० ॥१२८॥ नश्चइ तिणइ नगरइ हुं जास्युं, ते विचि घर करइ केम जी । मूझनइ सिवपुरि वरि घर करवउ, वचि रहवइ नही प्रेम जी ॥इंद्र०॥१२९।। वलीअ पुरंदर बोलई सुंदर, आ मोषक लोमाहारइ जी । गांठिभेद तकर सवि वारु, जिम पुरि जयजयकारइ जी ॥इंद्र०॥१३०॥ हवि ऋषि भणइ सुणि हो सुरपति. घइ सवि मिथ्या दंड जी । जे करइ मूंकीजइ, न करइ जे तसू दंड प्रचंड जी ॥इंद्र०॥१३१॥ वली विज्ञा ऋषिजीनइ बोलइ, जे नृप तुझ न नमेई जी । ते वसि करी पछइ व्रत आदरि, उत्तर ऋषि पभणेइ जी ॥ईंद्र०॥१३२॥
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