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परिशिष्ट १ मयणरेहा संधि (रचनासंवत् १२९७)
कडवक-१ निरुवम-नाण-निहाणो पसम-पहाणो विवेय-सनिहाणो । दुग्गइ-दार-पिहाणो जिण-धम्मो जयइ सुह-कम्मो ॥१॥ सुमरिवि जिण-सासणु सुह-निहि-सासणु सिरि-नमि-महरिसि मणि धरिउ । पभणिसु संखेविहिं तमविकखेविहिं मयणरेह-महासइ-चरिउ ॥२॥ भो भविय ! सुणउ भरहद्ध-खित्ति, जं वित्त सुदंसणपुरि पवित्ति । मणिरह भिहाणु तहिं अस्थि राउ, जुवराउ लहुउ जुगबाहु भाउ ॥३॥ तसु भज्ज महासइ मयणरेह, वर-रूव-सीलि जगि लद्धरेह । चंदजसु नामि तहं सुउ पवित्तु, अन्नाय-अविहि-वल्ली लवित्तु ॥४॥ सा चंदसुमिणसूइउ सुगब्भु, पुण धरइ पवर-पुन्निहिं पगब्भु ।। जिणपूअण-आगम-सवणइच्छ, सा पूरिय पइणा बहु-विहिच्छ ॥५॥ इत्थंतरि मणिरहि मयणरेह, भोगत्थि पत्थिय भवअणेह । सा भणइ नरीसर तुह न जुत्तु, एयारिसु वुत्तु पाव-पत्तु ॥६॥ तसु हुउ पाविदह दुटु भाउ, जे मारउँ लहु जुगबाहु भाउ । उज्जाण-ठीउ भज्जा-समेउ, असिणा हउ निग्धिणि वर-विवेउ ॥७॥ हाहावु उट्ठिउ तहिं महंतु, अह मयणरेह बोहेइ कंतु । पसमाइगुणिहिं सम्मत्त देइ, सो देस-विरइ भावेण लेइ ॥८॥ खमाविय सयल वि जीव-जाइ, परमिटि सरंतह आउ जाइ । सो यउ पंचम देव-लोई, इंदह सामाणिउ बंभ-लोइ ॥९॥ मयणरेहए एउ जाणिउ मणु सम्मि आणिउ, तसु ठाणह नीहरइ लहु ।
अडवी कयली-हरि पसरियकरि-हरि, पसवइ सुउ पुन्नेहिं सहु ॥१०॥ १. भव-अस्नेहा-भवे संसारे असोहा इति तात्पर्यम् ।
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