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________________ [87] यहाँ कवि कालिदास कहते है कि - वृषभध्वज (शंकर)ने देवदारु वृक्ष को मानो पुत्र ही बनाया है । जो वृक्ष वृक्ष ही था, पुत्र नहीं था । उस वृक्ष को शंकरने पुत्र ही मान लिया है – इस अर्थ को व्यक्त करने के लिए यहाँ ।-च्चि/ प्रत्यय का प्रयोग किया गया है । दूसरे शब्दों में कहे तो - यहाँ देवदारु वृक्ष रूप उपमेय के उपर, पुत्ररूप उपमान की सम्भावना की गई है । अतः यह उत्प्रेक्षालङ्कार का भी उदाहरण बनता है । वार्तिककार ने -च्चि/ से 'अभूततद्भाव' रूप अर्थ विलसित होता है - ऐसा अर्थदर्शन प्राप्त किया है । परन्तु उसका जब व्यापक रूप से सम्भाषण सन्दर्भ में प्रयोग होता है तब रूपक के साथ साथ उत्प्रेक्षा अलङ्कार की अर्थच्छाया भी प्रकट होती है - यह विशेष ध्यातव्य है ॥ 3.0 उपसंहार : ___ उपर्युक्त चर्चा से यह निष्कर्ष निकलता है कि अनुक्तचिन्ता-प्रवर्तक वार्तिक में से कतिपय ऐसे भी है कि जिस में कात्यायन ने वक्ता एवं श्रोता का सम्भाषण-सन्दर्भ ध्यान में लेते हुए तो विशिष्टयर्थ की प्रतीति होती है उसका निर्देश किया है । एवं वक्ता अपने मनोगत विशिष्ट भावों को व्यक्त करने के लिए जो विशिष्ट लकार, विभक्ति या प्रत्ययादि का चयन करता है तो उसको भी व्यर्तिककार ने शब्दबद्ध किया है । यद्यपि वार्तिककार कात्यायन ने इस तरह के सम्भाषणसन्दर्भ का उल्लेख पाणिनि से प्रेरित होकर ही किया है। परन्तु वार्तिककार की इस महनीय सेवा का आधुनिक अध्येताओं ने निर्देश नहीं किया है। वर्णनात्मक प्रकार के इस व्याकरण में सम्भाषण सन्दर्भो का कहाँ कहाँ पर सूत्रकार एवं वार्तिककार के द्वारा निर्देश किया गया है ? इसका अध्ययन करने से ही वार्तिककार के कार्य का योग्य मूल्यांकन हो सकेगा । अन्यथा गोलडस्टुकर की तरह कात्यायन को पाणिनि का विरोधी, या पतञ्जलि को कात्यायन का विरोधी कहने से किसी का भी व्याकरण में क्या अवदान है यह स्पष्ट होनेवाला नहीं है। ___-आज हमने जो वार्तिक उदाहृत करके अध्ययन प्रस्तुत किया है उससे यह स्पष्ट हुआ होगा कि - वार्तिककार कात्यायन ने अपने वार्तिकों में विशेष रूप से जो सम्भाषण सन्दर्भो का उल्लेख किया है वह वर्णनात्मक प्रकार के व्याकरण की पूर्ति का ही उपक्रम है और वही कार्य कात्यायन का विशेष स्मरणीय अवदान मानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002635
Book TitlePaniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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